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________________ द्वितीय स्थानपद] [२०१ रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण छायायुक्त, प्रभा से युक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतयुक्त, प्रसन्नताकारक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत-से अनुत्तरौपपातिक देव निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न, सभी समान बली, सभी समान अनुभाव (प्रभाव) वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्यरहित, पुरोहितहहित हैं। वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे जाते हैं। विवेचन–सर्व वैमानिक देवों के स्थानों की प्ररूपणा —प्रस्तुत पन्द्रह सूत्रों (सू. १९६ से २१० तक) में सामान्य वैमानिकों से लेकर सौधर्मादि विशिष्ट कल्पोपपन्नों एवं नौ ग्रैवेयक तथा पंच अनुत्तरौपपातिकरूप कल्पातीत वैमानिकों के स्थानों, विमानों, उनकी विशेषताओं, वहाँ बसने वाले देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों आदि सबका स्फुट वर्णन किया गया है। सामान्य वैमानिकों की विमानसंख्या-सौधर्म आदि विशिष्ट कल्पोपपन्न वैमानिकों के क्रमशः बत्तीस, अट्टाईस, बारह, आठ, चार लाख विमान आदि ही कुल मिला कर ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान, सामान्य वैमानिकों के होते हैं। . ____ द्वादश कल्पों के देवों के पृथक्-पृथक् मुकुटचिह्न–१. सौधर्म देवों के मुकुट में मृग का, २. ऐशान देवों के मुकुट में महिष (भैंसे) का, ३. सनत्कुमार देवों के मुकुट में वराह (शूकर) का, ४. माहेन्द्र देवों के मुकुट में सिंह का, ५. ब्रह्मलोक देवों के मुकुट में छगल (बकरे) का, ६. लान्तक देवों के मुकुट में दर्दुर (मेंढक) का, ७. (महा) शुक्रदेवों के मुकुट में अश्व का, ८. सहस्रारकल्पदेवों के मुकुट में गजपति का, ९. आनतकल्पदेवों के मुकुट में भुजग (सर्प) का, १०. प्राणतकल्पदेवों के मुकुट में खङ्ग (वन्य पशु या गेंडे) का, ११. आरणकल्पदेवों के मुकुट में वृषभ (बैल) का और १२. अच्युत कल्पदेवों के मुकुट में विडिम का चिह्न होता है। सपक्खि सपडिदिसिं की व्याख्या-जिनके पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिणरूप पक्ष अर्थात् पार्श्व समान हैं, वे 'सपक्ष' यानी समान दिशा वाले कहलाते हैं तथा जहाँ प्रतिदिशाएँ-विदिशाएँ समान हैं, वे 'सप्रतिदिश' कहलाते हैं। 'अणिंदा' आदि शब्दों की व्याख्या-अणिंदा'-जिन देवों के कोई इन्द्र यानी अधिपति नहीं है, वे अनिन्द्र। 'अपेस्सा'—जिनके कोई दास या भृत्य नहीं है, वे अप्रेष्य। 'अपुरोहिया'—जिनके कोई पुरोहित-शान्तिकर्म करने वाला नहीं होता, वे अपुरोहित हैं, क्योंकि इन कल्पातीत देवलोकों को किसी प्रकार की अशान्ति नहीं होती। 'अहमिंदा'-'अहमिन्द्र', जिनमें सबके सब स्वयं इन्द्र हों, वे अहमिन्द्र कहलाते हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १०० २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १०५ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १०५-१०६
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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