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भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीकुमार श्रमण गणधर गौतम से पूछते हैं— हे मेधाविन् ! हम एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं तो फिर इस (आचार) भेद का क्या कारण है? इन दो प्रकार के धर्मों में आपको विप्रत्यय नहीं होता ? गौतम ने कहा— धर्म तत्त्व का निर्णय प्रज्ञा से करना चाहिए । १३ केशीकुमार श्रमण ने गणधर गौतम की प्रज्ञा को पुनःपुनः साधुवाद दिया । १४ आचारचूला में यह स्पष्ट लिखा है— समाधिस्थ श्रमण की प्रज्ञा बढ़ती है । १५ आचार्य यतिवृषभ ने 'तिलोयपन्नन्ति' ग्रन्थ में १६ श्रमणों की लब्धियों का वर्णन करते हुए एक लब्धि का नाम 'प्रज्ञाश्रमण' दिया है। प्रज्ञाश्रमण लब्धि जिस मुनि को प्राप्त होती है, वह मुनि सम्पूर्ण श्रुत का तलस्पर्शी अध्येता बन जाता है । प्रज्ञाश्रमणऋद्धि के औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा ये चार प्रकार बताये हैं। मंत्रराजरहस्य में प्रज्ञाश्रमण का वर्णन है। १७ कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रज्ञाश्रमण की व्याख्या की है। १८ आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञाश्रमण को वन्दन किया है और साथ ही उन्हें जिन भी कहा है । १९ आचार्य अकलंक ने भी प्रज्ञाश्रमण का वर्णन किया है । २०
अब चिन्तनीय यह है कि प्रज्ञा शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर हुआ है। विभिन्न कोशकारों ने प्रज्ञा को ही बुद्धि कहा है। वह बुद्धि का पर्यायवाची माना गया है और एकार्थक भी! किन्तु चिन्तन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होता है कि दोनों शब्दों की एकार्थता स्थूलदृष्टि है। कोशकार ने जिन शब्दों को पर्यायवाची कहा है, वे शब्द वस्तुतः पर्यायवाची नहीं होते । समभिरूढनय की दृष्टि से भी शब्द पर्यायवाची नहीं है। प्रत्येक शब्द का अपना पृथक् अर्थ वाच्य होता है । प्रज्ञा शब्द का भी अपने आप में एक विशिष्ट अर्थ है बुद्धि शब्द स्थूल और भौतिक जगत् से सम्बन्धित है। पर प्रज्ञा शब्द बुद्धि से बहुत ऊपर उठा हुआ है। बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है अन्तरंग जगत् की बुद्धि प्रज्ञा है । प्रज्ञा अतीन्द्रिय जगत् का ज्ञान है । वह आन्तरिक चेतना का आलोक है । 'प्रज्ञा' किसी ग्रन्थ के अध्ययन से उपलब्ध नहीं होती । वह तो संयम और साधना से उपलब्ध होती है । प्रज्ञा को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- (१) इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और (२) इन्द्रियातीत प्रज्ञा । आचार्य वीरसेन
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प्रज्ञा और ज्ञान का भेद प्रतिपादित करते हुए लिखा है— गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्यशक्ति प्रज्ञा है ज्ञान उसका कार्य है । इससे यह स्पष्ट है कि चेतना का शास्त्रनिरपेक्ष विकास प्रज्ञा है । प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती, अपितु आन्तरिक विकास से उपलब्ध होती है । प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है । पातंजलयोग-दर्शन में प्रज्ञा पर विस्तार से
१३. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २३, गाथा २५
१४. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन - २३, गाथा, २८, ३४, ३९, ४४, ४९, ५४,५९, ६४, ६९, ७४, ७९,८५
१५. आयारचूला, २६ / ५
१६. धवला ९/४; १; १८/८४ / २
१७. मंत्रराजरहस्य, श्लोक ५२२
१८. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग २, पृष्ठ. ३६५
१९. षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, धवला ९, लब्धि स्वरूप का वर्णन ।
२०. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सूत्र ३६
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