________________
१६४]
[प्रज्ञापना सूत्र
लोगस्सअसंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा य देवीओ य परिवसंति। काला लोहियक्खा तहेव जाव भुंजमाणा विहरंति। एतेसि णं तहेव तायत्तीसगलोगपाला भवंति। एवं सव्वत्थ भाणितव्वं भवणवासीणं।
। [१७९-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त एवं अपर्याप्त दाक्षिणात्य (दक्षिण दिशा वाले) असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? भगवन्! दाक्षिणात्य असुरकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ?
[१७९-१ उ.] गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुमेरुपर्वत के दक्षिण में, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नाप्रभापृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे के एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में जो एक लाख अठहत्तर हजार योजन क्षेत्र है, वहाँ दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है।
वे (दाक्षिणात्य असुरकुमारों के) भवन (भवनावास) बाहर से गोल और अन्दर से चौरस (चौकोर) हैं, शेष समस्त वर्णन यावत् 'प्रतिरूप हैं ' तक सूत्र १७८-१ के अनुसार समझना चाहिए। यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं, जो कि तीनों अपेक्षाओं (उपपात, समुद्घात एवं स्वस्थान की अपेक्षा) से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ दाक्षिणात्य असुरकुमार देव एवं देवियाँ निवास करती हैं। वे (दाक्षिणात्य असुरकुमार देव) काले, लोहिताक्ष रत्न ......... के समान ओठ वाले हैं, ....... इत्यादि सब वर्णन यावत् ‘भोगते हुए रहते हैं ' (भुंजमाणा विहरंति) तक सूत्र १७८-१ के अनुसार समझना चाहिए। ____इनके उसी प्रकार त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देव आदि होते हैं, (जिन पर वे आधिपत्य आदि करते-कराते, पालन करते-कराते हुए यावत् विचरण करते हैं।) इस प्रकार सर्वत्र 'भवनवासियों के ऐसा उल्लेख करना चाहिए।
[२] चमरे अत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव' पभासेमाणे।
से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससतसहस्साणं चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तावत्तीसाए तायत्तीसाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउण्हं च चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरति।
[१७९-२] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (दाक्षिणात्य) असुरकुमारों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र निवास करता है, वह कृष्णवर्ण है, महानीलसदृश है, इत्यादि सारा वर्णन यावत् प्रभासित-सुशोभित करता हुआ १. 'तहेव' से सूत्र १७८ [१] के अनुसार तत्स्थानीय पूर्ण पाठ ग्राह्य है। २. 'तहेव' से सूत्र १७८-१ के अनुसार तत्स्थानीय समग्र पाठ समझना चाहिए। ३. 'जाव' तथा 'जहा' से सूचित तत्स्थानीय समग्र पाठ समझना चाहिए।