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________________ १४६ ] [ प्रज्ञापना सूत्र ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-णक्खत्तजोइसप्पभा मेद - वसा - पूयपडल- रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा असुभा रगेसु वेयणाओ, एत्थ ण रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घातेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । एत्थ णं बहवे रयणप्पभापुढविनेरइया परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था तसिया णिच्चं उव्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति । [१६८ प्र.] भगवन् रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? [१६८ उ. ] गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करने पर, तथा नीचे एक हजार योजन छोड़, कर, मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (जगह) में, रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावास होते हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अन्दर से गोल, बाहर से चौकोर और नीचे से छुरे के आकार से युक्त (संस्थित) हैं, वे नित्य घने अंधकार से ग्रस्त, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं । ( अतएव ) अशुचि (अपवित्र गंदे), बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित, कापोतरंग की अग्नि के वर्ण - सदृश, कर्कश स्पर्श वाले, दुःसह तथा अशुभ नरक हैं। नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं । इनमें रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से ( भी वे ) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं । (वे) काले, काली आभा वाले, (भयवश) गम्भीर रोमाञ्च वाले, भीम ( भयंकर), उत्कट त्रासजनक और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे वर्ण से अत्यन्त काले कहे गए हैं। वे (वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदा (परमाधार्मिक असुरों द्वारा एवं परस्पर) त्रासित ( त्रास पहुचाँए हुए), नित्य उद्विग्न ( घबराये हुए), तथा सदैव अत्यन्त अशुभ ( स्व - ) सम्बद्ध, (लगातार) नरक का भय प्रत्यक्ष अनुभव करते रहते हैं ।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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