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[प्रज्ञापना सूत्र
का अनुभव कर रहे हैं, वे 'अभिमुखनामगोत्र' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार के बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिको में से प्रथम के दो—एक भविक और बुद्धायुष्क—द्रव्यनिक्षेप से ही बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक हैं, भावनिक्षेप से नहीं, क्योंकि ये दोनों उस समय आयु, नाम और गोत्र का वेदन नहीं करते; अतएव यहाँ इन दोनों का अधिकार नहीं है, किन्तु यहाँ केवल अभिमुख नाम गोत्र बादर अपर्याप्त तेजस्कायिकों का अधिकार समझना चाहिए; क्योंकि वे ही स्वस्थान प्राप्ति के आभिमुख्यरूप उपपात को प्राप्त करते हैं। यद्यपि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वे भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक के आयुष्य, नाम एवं गोत्र का वेदन करने के कारण पूर्वोक्त कपाटयुगल-तिर्यग्लोक के बाहर स्थित होते हुए भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम को प्राप्त कर लेते हैं, तथापि यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि को स्वीकार करने के कारण जो स्वस्थान में समश्रेणिक कपाट-युगल में स्थित हैं, और जो स्वस्थान से अनुगत तिर्यग्लोक में प्रविष्ट हैं, उन्हीं को बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम से कहा जाता है; शेष जो कपाटों के अन्तराल में स्थित हैं, उनको नहीं क्योंकि वे विषमस्थानवर्ती हैं। इस प्रकार जो अभी तक उक्त कपाटयुगल में प्रवेश नहीं करते और न तिर्यग्लोक में प्रविष्ट होते हैं, वे अभी पूर्वभव में ही स्थित हैं, अतएव उनकी गणना बादर अपर्याप्ततेजस्कायिकों में नहीं की जाती। कहा भी है
पणयाललक्खपिहला दुन्नि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा।
लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ घिप्पंति॥ अर्थात्—पैंतालीस लाख योजन चौड़े दो कपाट हैं, जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर-अन्दर जो तेजस्कायिक हैं, उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया जाता है।
इसकी स्थापना (आकृति) इस प्रकार है - अतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहारनय की दृष्टि से की गई है।
समुद्घात की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों का स्थान—समुद्घात की दृष्टि से ये सर्वलोक में होते हैं। इसका आशय यों समझना चाहिए—पूर्वोक्तस्वरूप वाले दोनों कपाटों के मध्य (अपान्तरालों) में जो सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादि जीव हैं, वे बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर-प्रमाण और लम्बाई में उत्कृष्टतः लोकान्त तक अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाते हैं। जैसा कि अवगाहनासंस्थानपद में आगे कहा जाएगा___ पुढवीकाइयस्स णं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्य तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प.?' 'गोयमा! सरीरपमाणमेत्तविक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्य असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं लोगंतो।'
प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक ७६ में उद्धृत