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________________ १३६] [प्रज्ञापना सूत्र का अनुभव कर रहे हैं, वे 'अभिमुखनामगोत्र' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार के बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिको में से प्रथम के दो—एक भविक और बुद्धायुष्क—द्रव्यनिक्षेप से ही बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक हैं, भावनिक्षेप से नहीं, क्योंकि ये दोनों उस समय आयु, नाम और गोत्र का वेदन नहीं करते; अतएव यहाँ इन दोनों का अधिकार नहीं है, किन्तु यहाँ केवल अभिमुख नाम गोत्र बादर अपर्याप्त तेजस्कायिकों का अधिकार समझना चाहिए; क्योंकि वे ही स्वस्थान प्राप्ति के आभिमुख्यरूप उपपात को प्राप्त करते हैं। यद्यपि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वे भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक के आयुष्य, नाम एवं गोत्र का वेदन करने के कारण पूर्वोक्त कपाटयुगल-तिर्यग्लोक के बाहर स्थित होते हुए भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम को प्राप्त कर लेते हैं, तथापि यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि को स्वीकार करने के कारण जो स्वस्थान में समश्रेणिक कपाट-युगल में स्थित हैं, और जो स्वस्थान से अनुगत तिर्यग्लोक में प्रविष्ट हैं, उन्हीं को बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम से कहा जाता है; शेष जो कपाटों के अन्तराल में स्थित हैं, उनको नहीं क्योंकि वे विषमस्थानवर्ती हैं। इस प्रकार जो अभी तक उक्त कपाटयुगल में प्रवेश नहीं करते और न तिर्यग्लोक में प्रविष्ट होते हैं, वे अभी पूर्वभव में ही स्थित हैं, अतएव उनकी गणना बादर अपर्याप्ततेजस्कायिकों में नहीं की जाती। कहा भी है पणयाललक्खपिहला दुन्नि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा। लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ घिप्पंति॥ अर्थात्—पैंतालीस लाख योजन चौड़े दो कपाट हैं, जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर-अन्दर जो तेजस्कायिक हैं, उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया जाता है। इसकी स्थापना (आकृति) इस प्रकार है - अतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहारनय की दृष्टि से की गई है। समुद्घात की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों का स्थान—समुद्घात की दृष्टि से ये सर्वलोक में होते हैं। इसका आशय यों समझना चाहिए—पूर्वोक्तस्वरूप वाले दोनों कपाटों के मध्य (अपान्तरालों) में जो सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादि जीव हैं, वे बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर-प्रमाण और लम्बाई में उत्कृष्टतः लोकान्त तक अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाते हैं। जैसा कि अवगाहनासंस्थानपद में आगे कहा जाएगा___ पुढवीकाइयस्स णं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्य तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प.?' 'गोयमा! सरीरपमाणमेत्तविक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्य असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं लोगंतो।' प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक ७६ में उद्धृत
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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