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प्रथम प्रज्ञापनापद ]
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प्रायः आवासों में रहते हैं, कदाचित् भवनों में भी निवास करते हैं । भवन और आवास में अन्तर यह है कि भवन तो बाहर से वृत्त (गोलाकार) तथा भीतर से समचौरस होते हैं और नीचे कमल की कर्णिका के आकार के होते हैं; जबकि आवास कायप्रमाण स्थान वाले महामण्डप होते हैं, जो अनेक प्रकार के मणि - रत्नरूपी प्रदीपों से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं । भवनवासी देवों के प्रत्येक प्रकार के नाम के साथ संलग्न 'कुमार' शब्द इनकी विशेषता का द्योतक है। ये दसों ही प्रकार के देव कुमारों के समान चेष्टा करते हैं अतएव 'कुमार' कहलाते हैं। ये कुमारों की तरह सुकुमार होते हैं, इनकी चाल (गति) कुमारों की तरह मृदु, मधुर और ललित होती है । शृंगार-प्रसाधनार्थ ये नाना प्रकार की विशिष्ट एवं विशिष्टतर उत्तरविक्रिया किया करते हैं । कुमारों की तरह ही इनके रूप, वेशभूषा, भाषा, आभूषण, शस्त्रास्त्र, यान एवं वाहन ठाठदार होते हैं। ये कुमारों के समान तीव्र अनुरागपरायण एवं क्रीड़ातत्पर होते हैं ।
वाणव्यन्तर देवों का स्वरूप— अन्तर का अर्थ है— अवकाश, आश्रय या जगह। जिन देवों का अन्तर (आश्रय), भवन, नगरावास आदि रूप हो, वे व्यन्तर कहलाते हैं । वाणव्यन्तर देवों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर और नीचे सौ-सौ योजन छोड़ कर शेष आठ सौ योजन - प्रमाण मध्यभाग में हैं; और इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं; तथा इनके आवास तीन लोकों में हैं, जैसे ऊर्ध्वलोक में इनके आवास पाण्डुकवन आदि में हैं । व्यन्तर शब्द का दूसरा अर्थ है - मनुष्यों जिनका अन्तर नहीं (विगत) हो, क्योंकि कई व्यन्तर चक्रवर्ती, वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवक की तरह सेवा करते हैं। अथवा जिनके पर्वतान्तर, कन्दरान्तर या वनान्तर आदि आश्रयरूप विविध अन्तर हों, वे व्यन्तर कहलाते हैं । अथवा वानमन्तर का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - वनों का अन्तर वनान्तर है, जो वनान्तरों में रहते हैं, वे
वानमन्तर ।
वाणव्यन्तरों के किन्नर आदि आठ भेद हैं । किन्नर के दस भेद हैं- (१) किन्नर, (२) किम्पुरुष, (३) किम्पुरुषोत्तम, (४) किन्नरोत्तम, (५) हृदयंगम, (६) रूपशाली, (७) अनिन्दित, (८) मनोरम, (९) रतिप्रिय और (१०) रतिश्रेष्ठ । किम्पुरुष भी दस प्रकार के होते हैं- (१) पुरुष, (२) सत्पुरुष, (३) महापुरुष, (४) पुरुषवृषभ, (५) पुरुषोत्तम, (६) अतिपुरुष, (७) महादेव, (८) मरुत, (९) मेरुप्रभ और (१०) यशस्वन्त । महोरग भी दस प्रकार के होते हैं - ( १ ) भुजग, (२) भोगशाली, (३) महाकाय, (४) अतिकाय, (५) स्कन्धशाली, (६) मनोरम, (७) महावेग, (८) महायक्ष, (९) मेरुकान्त और (१०) भास्वन्त। गन्धर्व १२ प्रकार के होते हैं - ( १ ) हाहा, (२) हूहू, (३) तुम्बरव, (४) नारद, (५) ऋषिवादिक, (६) भूतवादिक, (७) कादम्ब, (८) महाकदम्ब, (९) रेवत, (१०) विश्वावसु, (११) गीतरति और (१२) गीतयश । यक्ष तेरह प्रकार के होते हैं - (१) पूर्णभद्र, (२) मणिभद्र, (३) श्वेतभद्र, (४) हरितभद्र, (५) सुमनोभद्र, (६) व्यतिपातिकभद्र, (७) सुभद्र, (८) सर्वतोभद्र, (९) मनुष्ययक्ष, (१०) वनाधिपति, (११) वनाहार, (१२) रूपयक्ष और (१३) यक्षोत्तम । राक्षस देव सात प्रकार के होते हैं- (१) भीम, (२) महाभीम, (३) विघ्न, (४) विनायक, (५) जलराक्षस, (६) राक्षस