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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [११९ (वाचनाचार्य पदस्थित) साधु भी छहमहीने के पश्चात् पारिहारिक बन कर अगले ६ महीनों तक के लिए तप करता है। और शेष साधु अनुचारी तथा कल्पस्थित बन जाते हैं। यह कल्प कुल १८ मास का संक्षेप में कहा गया है। कल्प समाप्त हो जाने के पश्चात् वे साधु या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं, या अपने गच्छ में पुनः लौट आते हैं। परिहार तप के प्रतिपद्यमानक इस तप को या तो तीर्थकर भगवान् के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थंकर से स्वीकार किया हो, उसके पास से अंगीकार करते हैं; अन्य के पास नहीं। ऐसे मुनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र कहलाता है। इस चारित्र की आराधना करने वाले को परिहारविशुद्धिचारित्रार्य कहते हैं। ____ परिहारविशुद्धिचारित्री दो प्रकार के होते हैं—इत्वरिक और यावत्कथिक। इत्वरिक वे होते हैं, जो कल्प की समाप्ति के बाद उसी कल्प या गच्छ में आ जाते हैं। जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिकचारित्री कहलाते हैं । इत्वरिकपरिहारविशुद्धिकों को कल्प के प्रभाव से देवादिकृत उपसर्ग, प्राणहारक आतंक या दुःसह वेदना नहीं होती किन्तु जिनकल्प को अंगीकार करने वाले यावत्कथिकों को जिनकल्पी भाव का अनुभव करने के साथ ही उपसर्ग होने सम्भव हैं। सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य का स्वरूप - जिसमें सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप सम्परायकषाय का ही उदय रह गया हो, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान वालों में होता है; जहाँ संज्वलनकषाय का सूक्ष्म अंश ही शेष रह जाता है। इसके दो भेद हैं- विशुद्धयमानक और संक्लिश्यमानक। क्षपकश्रेणी या उपसमश्रेणी पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है, जबकि उपशमश्रेणी के द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिरने वाला मुनि जब पुनः दसवें गुणस्थान में आता है, उस समय का सूक्ष्मसम्परायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। सूक्ष्मसम्परायचारित्र की आराधना से जो आर्य हों, उन्हें सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य कहते हैं। यथाख्यातचारित्रार्य— यथाख्यात' शब्द में यथा+आ+आख्यात, ये तीन शब्द संयुक्त हैं, जिनका अर्थ होता है-यथा (यथार्थरूप से) आ (पूरी तरह से) आख्यात (कषायरहित कहा गया) हो अथवा जिस प्रकार समस्त लोक में ख्यात-प्रसिद्ध जो अकषायरूप हो, वह चारित्र, यथाख्यातचारित्र कहलाता है। इस चारित्र के भी दो भेद हैं-छाद्मस्थिक (छद्मस्थ-यानी ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का) और कैवलिक (तैरहवें गुणस्थानवर्ती-सयोगिकेवली और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली का)। इस प्रकार के यथाख्यातचारित्र की आराधना से जो आर्य हों, वे यथाख्यातचारित्रार्य कहलाते हैं। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वत्ति, पत्रांक ६३ से ६८ तक (ख) सव्वमिणं समाइयं छेयाइविसेसियं पुण विभिन्नं । अविसेसं समाइय चियमिह सामन्नसन्नाए॥ प्र. म. वृ. प. ६३ (ग) अह सहो उ जहत्थे, अडोऽभिविहीए कहियमक्खायं। चरणमकसायमइयं तहमक्खायं जहक्खायं ।-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक ६८
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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