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प्रथम प्रज्ञापनापद]
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अप्रथमसमयवर्ती, तथा चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती। इनकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य के पुनः दो भेद बताए गए हैं-संक्लिश्यमान (ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। और विशुद्धयमान (नौवें गुणस्थान से ऊपर चढ़कर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। बादरसम्पराय-चारित्रार्य के भी पूर्ववत् प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद बताए गए हैं। इनके भी प्रकारान्तर से दो भेद किए गए हैं-प्रतिपाती और अप्रतिपाती । उपशमश्रेणी वाले प्रतिपाती (गिरने वाले) और क्षपक श्रेणीप्राप्त अप्रतिपाती (नहीं गिरने वाले) होते हैं। वीतराग के दो प्रकार हैंउपशान्तकषायवीतराग और क्षीणकषायवीतराग। उपशान्तकषायवीतराग (एकादशम-गुणस्थान वर्ती) की व्याख्या तथा इसके चार भेदों की व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए।
क्षीणकषायवीतराग के भी दो भेद होते हैं-छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग और केवलिक्षीणकषायवीतराग। इनमें से छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग के दो प्रकार हैं—स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित। इन दोनों के प्रथमसमयवर्ती आदि पूर्ववत् चार-चार भेद होते हैं। इन सबकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इसी प्रकार केवलिक्षीणकषायवीतराग के भी पूर्ववत् सयोगिकेवली और अयोगिकेवली तथा प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद होते हैं। इनकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इन सबकी अपेक्षा से जो आर्य होते हैं, वे तथारूप चारित्रार्य कहलाते हैं।
सामायिक चारित्रार्य का स्वरूप—सम का अर्थ है—राग और द्वेष से रहित। समरूप आय को समाय कहते हैं। अथवा सम का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनके आय अर्थात् लाभ अथवा प्राप्ति को समाय कहते हैं। अथवा 'समाय' शब्द साधु की समस्त क्रियाओं का, उपलक्षण हैं; क्योंकि साधु की समस्त क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित होती हैं। पूर्वोक्त 'समाय' से जो निष्पन्न हो, सम्पन्न हो अथवा 'समाय' में होने वाला सामायिक है। अथवा समाय ही सामायिक है; जिसका तात्पर्य है-सर्व सावध कार्यों से विरति। महाव्रती साधु-साध्वियों के चारित्र को सामायिकचारित्र कहा गया है; क्योंकि महाव्रती जीवन अंगीकार करते समय समस्त सावध कार्यों अथवा योगों से निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र ग्रहण किया जाता है। यद्यपि सामायिकचारित्र में साधु के चारित्रों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि छेदोपस्थापना आदि विशिष्ट चारित्रों से सामायिकचारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि और विशेषता आने के कारण उन चारित्रों को पृथक् ग्रहण किया गया है। सामायिक चारित्र के दो भेद हैं—इत्वरिक और यावत्कथिक। इत्वरिक का अर्थ है—अल्पकालिक और यावत्कथिक का अर्थ है—आजीवन (जीवनभर का, यावज्जीव का)। इत्वरिकसामायिक-चारित्र, भरत और ऐरवत क्षेत्रों में, प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के तीर्थ में, महाव्रतों का आरोपण नहीं किया गया हो, तब तक शैक्ष (नवदीक्षित) को दिया जाता है। अर्थात्-दीक्षाग्रहणकाल में महाव्रतारोपण से पूर्व तक का शैक्ष (नवदीक्षित) का चारित्र इत्वरिकसामायिकचारित्र होता है। भरत और ऐरवत क्षेत्र के मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों तथा महाविदेहक्षेत्रीय तीर्थंकरों के १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ५५ से ६० तक
(ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भाग. १, पृ. ४५३ से ५१३ तक