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प्रथम प्रज्ञापनापद]
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क्षेत्रों में उनसे भी अनन्तगुणे अधिक तथा पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु में इनसे भी अनन्तगुणे अधिक होते हैं। यह संक्षेप में अकर्मभूमकों का निरूपण है।
आर्य और म्लेच्छ मनुष्य-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन १५ क्षेत्रों में आर्य और म्लेच्छ दोनों प्रकार के कर्मभूमक मनुष्य रहते हैं। आर्य का अर्थ-हेय धर्मों (अधर्मो या पापों) से जो दूर हैं, और उपादेय धर्मों (अहिंसा, सत्य आदि धर्मों) के निकट हैं या इन्हें प्राप्त किए हुए हैं। म्लेच्छ वे हैं-जिनके वचन (भाषा) और आचार अव्यक्त-अस्पष्ट हों। दूसरे शब्दों में कहें तो जिनका समस्त व्यवहार शिष्टजनसम्मत न हो, उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिए।
म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख हैं। इनमें से अधिकांश म्लेच्छों की जाति के नाम तो अमुक-अमुक देश में निवास करने से पड़ गए हैं, जैसे-शक देश के निवासी शक, यवन देश के निवासी यवन इत्यादि।
आर्यों के प्रकार और उनके लक्षण-क्षेत्रार्य—मूलपाठ में परिगणित साढे पच्चीस जनपदात्मक आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने एवं रहने वाले क्षेत्रार्य कहलाते हैं। ये क्षेत्र आर्य इसलिए कहे गए हैं कि इनमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों का जन्म होता है। इनसे भिन्न क्षेत्र अनार्य कहलाते हैं। जात्यार्य-मूलपाठ में वर्णित अम्बष्ठ आदि ६ जातियां इभ्य-अभ्यर्चनीय एवं प्रसिद्ध हैं। इन जातियों से सम्बद्ध जन जात्यार्य कहलाते हैं। कुलार्य-शास्त्र-परिगणित उग्र आदि ६ कुलों में से किसी कुल में जन्म लेने वाले कुलार्य-कुल की अपेक्षा से आर्य कहलाते हैं। कार्य-अहिंसा आदि एवं शिष्टसम्मत तथा आजीविकार्य किए जाने वाले कर्म आर्यकर्म कहलाते हैं। शास्त्रकार ने दोषिक, सौत्रिक आदि कुछ आर्यकर्म से सम्बन्धित मनुष्यों के प्रकार गिनाये हैं। विशेषता स्वयमेव समझ लेना चाहिए। शिल्पार्यजो शिल्प अहिंसा आदि धर्मांगों से तथा शिष्टजनों के आचार के अनुकूल हो, वह आर्य शिल्प कहलाता है। ऐसे आर्य शिल्प से अपना जीवननिर्वाह करने वाले शिल्पार्यों में परिगणित किए गए हैं। कुछ नाम तो शास्त्रकार ने गिनाये ही हैं। शेष स्वयं चिन्तन द्वारा समझ लेना चाहिए। भाषार्य-अर्धमागधी उस समय आम जनता की, शिष्टजनों की भाषा थी, आज उसी का प्रचलित रूप हिन्दी एवं विविध प्रान्तीय भाषाएँ हैं। अतः वर्तमान युग में भाषार्य उन्हें कहा जा सकता है जिनकी भाषा संस्कृति और सभ्यता से सम्बन्धित हो, जिनकी भाषा तुच्छ और कर्कश न हो, किन्तु आदरसूचक. कोमल-कान्त पदावली से युक्त हो। शेष ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य का स्वरूप स्पष्ट ही है। जो सम्यग्ज्ञान से युक्त हों, वे ज्ञानार्य, जो सम्यग्दर्शन से युक्त हों, वे दर्शनार्य और जो सम्यक्चारित्र से युक्त हों, वे चारित्रार्य कहलाते हैं। जो मिथ्याज्ञान से, मिथ्यात्व एवं मिथ्यादर्शन से एवं कुचारित्र से युक्त हों, उन्हें क्रमशः ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य नहीं कहा जा सकता। शास्त्रकार ने पांच प्रकार के सम्यग्ज्ञान से युक्त जनों को ज्ञानार्य, सराग और वीतराग रूप सम्यग्दर्शन से युक्त जनों को दर्शनार्य तथा सराग और वीतराग रूप १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ५४