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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ ११३ करते ही दूसरी दाढ़ा आती है, जिस पर एकोरुक द्वीप जितना ही लम्बा-चौड़ा 'आभासिक' नामक द्वीप है तथा उसी हिमवान् पर्वत के पश्चिम दिशा के छोर ( पर्यन्त) से लेकर दक्षिण-पश्चिमदिशा (नैऋत्यकोण) में तीन सौ योजन लवणसमुद्र का अवगाहन करने के बाद एक दाढ़ आती है, जिस पर उसी प्रमाण का वैषाणिक नामक द्वीप है; एवं उसी हिमवान् पर्वत के पश्चिमदिशा के छोर से लेकर पश्चिमोत्तर दिशा (वायव्यकोण) में तीन-सौ योजन दूर लवणसमुद्र में एक दंष्ट्रा (दाढ़) आती है, जिस पर पूर्वोक्त प्रमाण वाला नांगोलिक द्वीप आता है । इस प्रकार ये चारों द्वीप हिमवान् पर्वत से चारों विदिशाओं में हैं और समान प्रमाण वाले हैं । तदनन्तर इन्हीं एकोरुक आदि चारों द्वीपों के आगे यथाक्रम से पूर्वोत्तर आदि प्रत्येक विदिशा में चार-चार सौ योजन आगे चलने के बाद चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े, कुछ कम १२६५ योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड से सुशोभित परिसर वाले तथा जम्बूद्वीप की वेदिका से ४०० योजन प्रमाण अन्तर वाले हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण नाम के चार द्वीप हैं । एकोरुक द्वीप के आगे हयकर्ण है, आभासिक के आगे गजकर्ण, वैषाणिक के आगे गोकर्ण और नांगोलिक के आगे शष्कुलीकर्ण द्वीप है । तत्पश्चात् इन हयकर्ण आदि चार द्वीपों के आगे पांच-पांच सौ योजन की दूरी पर फिर चार द्वीप हैं - जो पांच-पांच सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और पहले की तरह ही चारों विदिशाओं में स्थित हैं । इनकी परिधि १५८१ योजन की है । इनके बाह्यप्रदेश भी पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से सुशोभित हैं तथा जम्बूद्वीप की वेदिका से ५०० योजन प्रमाण अन्तर वाले हैं। इनके नाम हैं - आदर्शमुख, मेण्ढमुख, अयोमुख और गोमुख । इनमें से हयकर्ण के आगे आदर्शमुख, गजकर्ण के आगे मेण्ढमुख, गोकर्ण के आगे अयोमुख और शष्कुलीकर्ण के आगे गोमुख द्वीप है । इन आदर्शमुख आदि चारों द्वीपों के आगे छह-छह सौ योजन की दूरी पर पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में फिर चार द्वीप हैं - अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख । ये चारों द्वीप ६०० योजन लम्बेचौड़े और १८९७ योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से मण्डित बाह्यप्रदेश वाले एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से ६०० योजन अन्तर पर हैं। इन अश्वमुखादि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में ७०० - ७०० योजन की दूरी पर ७०० योजन लम्बे-चौड़े तथा २२१३ योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से घिरे हुए एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से ७०० योजन के अन्तर पर क्रमश: अश्वकर्ण, हरिकर्ण, अकर्ण और कर्णप्रावरण नाम के चार द्वीप हैं । फिर इन्हीं अश्वकर्ण आदि चार द्वीपों के आगे, यथाक्रम से पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में ८००-८०० योजन दूर जाने पर आठ सौ योजन लम्बे-चौड़े, २५२९ योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त प्रमाण वाली पद्मवरवेदिका-वनखण्ड से मण्डित परिसर वाले, एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से ८०० योजन के अन्तर पर उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख और विद्युद्दन्त नाम के चार द्वीप हैं।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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