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प्रथम प्रज्ञापनापद ]
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[५४-४] टूटे हुए जिस मूल का भंग (-प्रदेश) हीर (विषमछेद) दिखाई दे, वह मूल प्रत्येक (परित्त ) जीव वाला है । इसी प्रकार के अन्य जितने भी मूल हों, ( उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझने चाहिए) ॥ ६६ ॥) टूटे हुए जिस कन्द के भंग- प्रदेश में हीर (विषमछेद) दिखाई दे, वह कन्द प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी (कन्द हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाले समझो ) ॥ ६७ ॥ टूटे हुए जिस स्कन्ध के भंगप्रदेश में हीर दिखाई दे, वह स्कन्ध प्रत्येकजीव वाला है। इसी प्रकार के और भी जितने स्कन्ध हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो ) ॥ ६८ ॥ जिस छाल के टूटने पर उसके भंग (प्रदेश) में हीर दिखाई दे, वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छालें (त्वचाएँ) हों, उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो |) ॥ ६९ ॥ जिस शाखा के टूटने पर उसके भंग (प्रदेश) में विषम छेद दीखे, वह शाखा प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी शाखाएं हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाली समझनी चाहिए। ) ॥ ७० ॥ जिस प्रवाल टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह प्रवाल भी प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के और भी जितने प्रवाल हों, (उन्हें प्रत्येकजीव वाले समझो।) ॥ ७१ ॥ जिस टूटे हुए पत्ते के भंग- प्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पत्ता प्रत्येकजीव वाला है । इसी प्रकार के और भी जितने पत्ते हों, ( उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो ) ॥ - ७२ ॥ जिस पुष्प के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पुष्प प्रत्येकजीव वाला है इसी प्रकार के और भी जितने (पुष्प हों, उन्हें प्रत्येक जीवी समझना चाहिए ) ॥ ७३ ॥ जिस फल के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दृष्टिगोचर हो, वह फल भी प्रत्येकजीव वाला है । ऐसे और भी जितने (फल हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाले समझने चाहिए ) ॥ ७४ ॥ जिस बीज के टूटने पर उसके भंग में विषमछेद दिखाई दे, वह बीज प्रत्येकजीव वाला है । ऐसे अन्य जितने भी बीज हों, (वे भी प्रत्येकजीव वाले जानने चाहिए) ॥ ७५ ॥
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[५] जस्स मूलस्स कट्ठाओ छल्ली बहलतरी भवे । 'अनंतजीवा उसा छल्ली जा यावऽण्णा तहाविहा ॥ ७६ ॥ जस्स कंदस्स कट्ठाओ छल्ली बहलतरी भवे । अनंतजीवा तु सा छल्ली जा यावऽण्णा तहाविहा ॥ ७७ ॥ जस्स खंधस्य कट्ठाओ छल्ली बहलतरी भवे । अनंतजीवा उसा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा ॥ ७८ ॥ जीसे सालाए कट्ठाओ छल्ली, बहलतरी भवे । अनंतजीवा उसा छल्ली जा यावऽण्णा तहाविहा ॥ ७९ ॥
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[५४-५] जिस मूल के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा छल्ली (छाल) अधिक मोटी हो,
वह छाल अनन्तजीव वाली है । इस प्रकार की जो भी अन्य छालें हों, उन्हें अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए ॥ ७६ ॥ जिस कन्द के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह अनन्तजीव वाली है । इसी प्रकार की जो भी अन्य छालें हों, उन्हें अनन्तजीव वाली समझना चाहिए ॥ ७७ ॥ जिस स्कन्ध के काष्ठ से छाल