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________________ [ प्रज्ञापना सूत्र बादरआउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता । तं जहा - 'ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोद सेतोद उसिणोदए खारोदए खट्टोदए अंबिलोदए लवणोदए वारुणोदए खीरोदए घओदए खोतोदए रसोदए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा । [ २८-१प्र.] वे (पूर्वोक्त) बादर - अप्कायिक क्या (कैसे) हैं ? ४८ [ २८- १ उ.] बादर - अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार ओस, हिम, (बर्फ), महिका (गर्भमासों में होने वाली सूक्ष्म वर्षा — धुम्मस या कोहरा), ओले हरतनु (भूमि को फोड़ कर अंकुरित होने वाले गेहूँ घास आदि के अग्रभाग पर जमा होने वाले जलबिन्दु), शुद्धोदक ( आकाश में उत्पन्न होने वाला तथा नदी आदि का पानी), शीतोदक (नदी आदि का शीतस्पर्शपरिणत जल), उष्णोदक ( कहीं झरने आदि से स्वाभाविकरूप से उष्णस्पर्शपरिणत जल), क्षारोदक (खारा पानी), खट्टोदक (कुछ खट्टा पानी), अम्लोदक ( स्वाभाविकरूप से कांजी - सा खट्टा पानी), लवणोदक (लवण समुद्र का पानी), वारुणोदक ( वरुणसमुद्र का या मदिरा जैसे स्वादवाला जल), क्षीरोदक (क्षीरसमुद्र का पानी), धृतोदक (घृतवरसमुद्र का जल), क्षोरोदक ( इक्षुसमुद्र का जल) और रसोदक ( पुष्करवर समुद्र का जल) । ये और तथा प्रकार के और भी ( रस - स्पर्शादि के भेद से ) जितने प्रकार हों, (वे सब बादर - अप्कायिक समझने चाहिए ।) [२] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । [२८-२] वे (ओस आदि बादर अप्कायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । [ ३ ] तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता । [ २८-३] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त (अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाए ) हैं । [ ४ ] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणीपमुहसयसहस्साइं । पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति— जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा | से त्तं बादरआउक्काइया । से त्तं आउक्काइया । [ २८-४] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद (विधान) होते हैं । उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख हैं । पर्याप्तक जीवों के आश्रय से अपर्याप्तक और उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्तक हैं, वहाँ नियम से ( उसके आश्रय से) असंख्यात (अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं ।) यह हुआ, बादर अप्कायिकों का वर्णन ।) (और साथ ही) अप्कायिक जीवों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई ।) १. आचारांगसूत्रनिर्युक्तिकार ने बादर- अप्काय के 'सुद्धोदए य १ उस्सा २ हिमे य ३ महिया य ४ हरतणू चेव । बायरआउविहाणा पंचविहा वण्णिया एए ॥ १०८ ॥" इस गाथानुसार ५ ही भेंदों का निर्देश किया है। तथा उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३६, गाथा ८६ में भी ये ही पांच भेद गिनाए हैं, जबकि यहाँ अनेक भेद बताए हैं। सं.
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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