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[प्रज्ञापना सूत्र प्रथम प्रज्ञापनापदः प्रश्नकर्ता कौन, उत्तरदाता कौन ? प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्री श्यामार्य (श्यामाचार्य) वाचक हैं, उन्होंने प्रारम्भ में सामान्यरूप से किसी अनाग्रही, मध्यस्थ, बुद्धिमान् एवं तत्त्वज्ञानार्थी श्रोता या जिज्ञासु की ओर से स्वयं प्रश्न उठाए हैं और आगे अनेक स्थलों या पदों में श्री गौतम गणधर द्वारा प्रश्न उठाए हैं, तथा उत्तर भगवान् महावीर की ओर से प्रस्तुत किये हैं। यद्यपि साक्षात् गौतम गणधर या कोई मध्यस्थ प्रश्नकर्ता तथा भगवान् महावीर जैसे उत्तरदाता यहाँ नहीं हैं, किन्तु 'अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं' (शास्त्रोक्त अर्थ का कथन अर्हन्त करते हैं और गणधर सूत्ररूप में उसका कुशलतापूर्वक ग्रथन (रचना) करते हैं।) इस न्याय से पम्परागत शास्त्रप्रतिपादित अर्थ तीर्थंकर भगवान् महावीर और गौतमादि गणधरों से ही आयात है, इसलिए तथा सारा शास्त्रीयज्ञान तीर्थंकरों का है, मैं तो उसकी केवल संकलना करने वाला हूँ, इस प्रकार अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के लिए तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों की प्रश्नोत्तर-रूप में प्ररूपणा करना युक्तियुक्त ही है। यह शास्त्र कहाँ से उद्धृत किया गया है ? इसमें प्रतिपादित अर्थ किन-किन के द्वारा वर्णित हैं ? यह दूसरी, तीसरी मंगलाचरणगाथा में स्पष्ट कह दिया है।
प्रज्ञापना का प्रकारात्मक स्वरूप-प्रज्ञापना क्या है ? यह प्रश्न या इस प्रकार के शास्त्रीयशैली के प्रश्नों का फलितार्थ यह है कि प्रज्ञापना या अन्य विवक्षित तत्त्वों का प्रकारात्मक स्वरूप क्या है ? प्रज्ञापना का व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ या स्वरूप तो पहले प्रतिपादित किया जा चुका है। वास्तव में जीव और अजीव से सम्बन्धित समस्त पदार्थों या तत्त्वों को शिष्य या तत्त्वजिज्ञासु की बुद्धि में स्थापित कर देना ही प्रज्ञापना का अर्थ या स्वरूप है।
जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना—समस्त चेतनाशील एवं उपयोग वाले जीव कहलाते हैं, जिनमें चेतना नहीं होती, उपयोग नहीं होता, वे सब अजीव कहलाते हैं। जीवों की प्रज्ञापना में इन्द्रियों तथा विभिन्न गतियों एवं योनियों की दृष्टि से जीवों का वर्गीकरण करके उनके भेद-प्रभेद प्रस्तुत किये गए हैं तथा अजीवप्रज्ञापना में अरूपी और रूपी अजीवों के भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण तथा विविध वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श एवं संस्थान एक दूसरे के साथ सम्बन्धित होने से होने वाले विकल्प (भंग) भी प्रस्तुत किये गए हैं। वैसे देखा जाए तो जीव और अजीव इन दोनों के निमित्त से होने वाले विभिन्न तत्त्वों या पदार्थों का ही विश्लेषण समग्र प्रज्ञापनासूत्र में है। जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना ये दो ही प्रस्तुत शास्त्र के समस्त पदों (अध्ययनों) की मूल आधारभूमि हैं। १. (क) 'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति स्मृतः।'
(ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक ७ (ग) 'प्रकर्षेण यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति
प्रज्ञापना।'-प्रज्ञापना. म. वृत्ति. प. १ २. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. १२ से ४५ तक