SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [प्रज्ञापना सूत्र अजीव-पर्याय के भेद-प्रभेद तथा अरूपी अजीव एवं रूपी अजीव के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा से पर्यायों की संख्या की विचारणा की गई है। - छठे व्युत्क्रान्तिपद में बारह मुहूर्त और चौबीस मुहूर्त का उपपात और उद्वर्तन (मरण) सम्बन्धी विरहकाल क्या है ? कहाँ जीव सान्तर उत्पन्न होता है, कहाँ निरन्तर ?, एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते और मरते हैं ?, कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, मर कर कहाँ जाते हैं ?, परभव की आयु कब बन्धती है ?, आयुबन्ध सम्बन्धी आठ आकर्ष कौन-से हैं?, इन आठ द्वारों से जीव की प्ररूपणा की गई है। । सातवें उच्छ्वासपद में नैरयिक आदि के उच्छ्वास ग्रहण करने और छोड़ने के काल का वर्णन है। आठवें संज्ञापद में जीव की आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ ___इन १० संज्ञाओं का २४ दण्डकों की अपेक्षा से निरूपण किया गया है। - नौवें योनिपद में जीव की शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत, संवृत-विवृत, कूर्मोन्नत, शंखावर्त और वंशीपत्र, इन योनियों के आश्रय से समग्र जीवों का विचार किया गया है। 0 दसवें चरम-अचरम पद में चरम है, अचरम है, चरम हैं, अचरम हैं, चरमान्तप्रदेश हैं, अचरमान्त प्रदेश हैं, इन ६ विकल्पों को लेकर २४ दण्डकों के जीवों का गत्यादि की दृष्टि से तथा विभिन्न द्रव्यों का लोक-अलोक आदि की अपेक्षा से विचार किया गया है। 0 ग्यारहवें भाषापद में भाषासम्बन्धी विचारणा करते हुए बताया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है ?, कहाँ पर रहती है ?, उसकी आकृति किस प्रकार की है ? उसका स्वरूप तथा बोलने वाले व्यक्ति आदि प्रश्नों पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही सत्यभाषा, मृषाभाषा, तथा सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा के क्रमशः दस, दस, दस और सोलह प्रकार बताए हैं। अन्त में १६ प्रकार के वचनों का उल्लेख किया है। । बारहवें शरीरपद में पांच शरीरों की अपेक्षा से चौबीस दण्डकों में से किसके कितने शरीर हैं, तथा इन सभी में बद्ध-मुक्त कितने-कितने और कौन-से शरीर होते हैं ? इत्यादि सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया गया है। तेरहवें परिणामपद में—जीव के गति आदि दस परिणामों और अजीव के बन्धन आदि दस परिणामों पर विचार किया गया है। । चौदहवें कषायपद में क्रोधादि चार कषाय, उनकी प्रतिष्ठा, उत्पत्ति, प्रभेद तथा उनके द्वारा कर्म प्रकृतियों के चयोपचय एवं बन्ध की प्ररूपणा की गई है। 0 पन्द्रहवें इन्द्रियपद में दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में पांचों इन्द्रियों की संस्थान, बाहल्य आदि २४ द्वारों के माध्यम से विचारणा की गई है। दूसरे उद्देश्यक में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तना,
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy