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________________ सूर्याभदेव द्वारा नृत्य-गान-वादन का आदेश सौतार की वीणा, ३१. काछवी वीणा, ३२. चित्र वीणा, ३३. आमोट, ३४. झंझा, ३५. नकुल, ३६. तूण, ३७. तुंबवीणा–तम्बूरा, ३८. मुकुन्द-मुरज सरीखा एक वाद्य-विशेष, ३९. हुडुक्क, ४०. विचिक्की, ४१. करटी, ४२. डिंडिम, ४३. किणिक, ४४. कडंब, ४५. दर्दर, ४६. दर्दरिका, ४७. कलशिका, ४८. मडक्क, ४९. तल, ५०. ताल, ५१. कांस्य ताल, ५२. रिंगरिसिका, ५३. लत्तिका, ५४. मकरिका, ५५. शिशुमारिका, ५६. वाली, ५७. वेणु, ५८. परिली, ५९. बद्धक। यद्यपि मूल सूत्रपाठ के वाद्यों की संख्या उनपचास बताई है, परन्तु गणना करने पर उनकी संख्या उनसठ होती है। टीकाकार ने इसका समाधान इस प्रकार किया है मूलभेदापेक्षया आतोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत्, शेषास्तु एतेषु एव अन्तर्भवन्ति यथा वंशातोद्यविधाने वाली-वेणु-परिली-बद्धगा-इति अर्थात् वाद्यों के मूल भेद तो उनपचास ही हैं। शेष उनके अवान्तरभेद हैं, जैसे कि वंशवाद्यों में वाली, वेणु, परिली, बद्धग आदि का अन्तर्भाव हो जाता है। ऊपर दिये गये वाद्य नामों में से कुछ एक के नाम स्पष्ट ज्ञात नहीं होते हैं कि वर्तमान में उनकी क्या संज्ञा है ? टीकाकार आचार्य ने भी लोकगम्य कहकर इनकी व्याख्या नहीं की है—'अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः ।' सूर्याभदेव द्वारा नृत्य-गान-वादन का आदेश ___७८- तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य सद्दावेति । तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सूरियाभेणं देवेणं सद्दाविया समाणा हट्ठ जाव (तुट्ठ चित्तमाणंदिया) जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव (सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलिं कटु जएणं विजएणं बद्धावेंति) वद्धावित्ता एवं वयासी—'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेंहि कायव्वं ।' ७८.- तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों तथा देवकुमारियों को बुलाया। __ सूर्याभदेव द्वारा बुलाये जाने पर वे देवकुमार और देवकुमारियां हर्षित होकर यावत् (संतुष्ट और चित्त में आनंदित होकर) सूर्याभदेव के पास आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् (आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से बधाया और) अभिनन्दन कर सूर्याभदेव से विनयपूर्वक बोले हे देवानुप्रिय! हमें जो करना है, उसकी आज्ञा दीजिये। ७९- तए णं से सूरियाभे देवे ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य एवं वयासी गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदह नमंसह, वंदित्ता नमंसित्ता गोयमाइयाणं समणाण निग्गंथाणं तं दिव्वं देविड्डिं दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं बत्तीसइबद्धं णट्टविहिं उवदंसेह, उवदंसित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ७९- तब सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों और देवकुमारियों से कहाहे देवानुप्रियो ! तुम सभी श्रमण भगवान् महावीर के पास जाओ और दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन बार
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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