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तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन
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गुत्तिया ससक्खं जाव' उवणेति, तए णं अहं (तं) पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, जीवियाओ ववरोवेत्ता अयोकुंभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहावेमि जावपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि ।
तए णं अहं अन्नया कयाई जेणेव सा कुंभी तेणेव उवागच्छामि, तं अउकुंभिं उग्गलच्छावेमि, तं अउकुभिं किमिकुंभिं पिव पासामि । णो चेव णं तीसे अउकुंभीए केइ छिड्डे इ वा जाव राई वा जता णं ते जीवा बहियाहिंतो अणुपविट्ठा, जति णं तीसे अउकुंभीए होज्ज केइ छिड्डे इ वा जाव अणुपविट्ठा, तेणं अहं सद्दहेज्जा तहा–अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं तीसे अउकुंभीए नत्थि केइ छिड्डे इ वा जाव अणुपविट्ठा तम्हा सुपतिढिआ मे पइण्णा जहा—तं जीवो तं सरीरं तं चेव ।
२५०- इस उत्तर को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा
भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि हे भदन्त ! किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा हुआ था। तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया। मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया अर्थात् मार डाला और मारकर एक लोहकभी में डलवा दिया. ढक्कन से ढांक दिया यावत् अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया।
इसके बाद किसी दिन जहां वह कंभी थी.मैं वहां आया। आकर उस लोहकंभी को उघाडा तो उसे कमिकल से व्याप्त देखा। लेकिन उस लोहकुंभी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सकें। यदि उस लोहकुंभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था—मान लेता कि वे जीव उनमें से होकर कुंभी में प्रविष्ट हुए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। लेकिन जब उस लोहकुंभी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गये। अत: मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठितसमीचीन है कि जीव और शरीर एक ही हैं अर्थात् जीव शरीर रूप है और शरीर जीव रूप है।
२५१- तए णं केसी कुमारसमणे पएसी रायं एवं वयासीअत्थि णं तुमे पएसी ! कयाइ अए धंतपुव्वे वा धम्मावियपुव्वे वा ? हंता अस्थि । से णूणं पएसी ! अए धंते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवति ? हंता भवति ।
अत्थि णं पएसी ! तस्स अयस्स केइ छिड्डे इ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुपविढे ?
नो इणमटे (इण8) समढे ।
एवामेव पएसी ! जीवो वि अप्पडिहयगई पुढविं भिच्चा, सिलं भिच्चा बहियाहिंतो अणुपविसइ, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! तहेव ।
१-२. देखें सूत्र संख्या २४८