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________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन की देवच्छन्दक आदि की प्रमार्जना जलधारा सींची आदि धूप जलाने तक करने योग्य पूर्वोक्त सब कार्य किये। तदनन्तर जहां दाक्षिणात्य प्रेक्षागृहमण्डप था, एवं उस दक्षिणदिशावर्ती प्रेक्षागृहमण्डप का अतिमध्य देशभाग था और उसके मध्य में बना हुआ वज्रमय अक्षपाट तथा उस पर बनी मणिपीठिका एवं मणिपीठिका पर स्थापित सिंहासन था, वहां आया और मोरपीछी लेकर उससे अक्षपाट, मणिपीठिका और सिंहासन को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, धूपप्रक्षेप किया, पुष्प चढ़ाये तथा ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल-गोल मालाओं से विभूषित किया यावत् धूपक्षेप करने के बाद अनुक्रम से जहां उसी दक्षिणी प्रेक्षागृहमण्डप के पश्चिमी द्वार एवं उत्तरी द्वार थे वहां आया और वहां आकर पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूपदान तक करने योग्य कार्य सम्पन्न किये। उसके बाद पूर्वी द्वार पर आया। यहां आकर भी प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूपदान तक के सब कार्य पूर्ववत् किये। तत्पश्चात् दक्षिणी द्वार पर आया, वहां आकर भी उसने प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूपदान तक के सब कार्य किये। १२१ इसके पश्चात् दक्षिणदिशावर्ती चैत्यस्तूप के सन्मुख आया। वहां आकर स्तूप और मणिपीठिका को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी मालायें लटकाईं आदि सब कार्य सम्पन्न किये। अनन्तर जहां पश्चिम दिशा की मणिपीठिका थी, जहां पश्चिम दिशा में विराजमान जिनप्रतिमा थी वहां आकर प्रमार्जनादि कृत्य से लेकर धूपदान तक सब कार्य किये। इसके बाद उत्तरदिशावर्ती मणिपीठिका और जिनप्रतिमा के पास आया। आकर प्रमार्जन करने से लेकर धूपक्षेपपर्यन्त सब कार्य किये। इसके पश्चात् जहां पूर्वदिशावर्ती मणिपीठिका थी तथा पूर्वदिशा में स्थापित जिनप्रतिमा थी, वहां आया। वहां आकर पूर्ववत् प्रमार्जन करना आदि धूप जलाने पर्यन्त सब कार्य किये। इसके बाद जहां दक्षिण दिशा की मणिपीठिका और दक्षिणदिशावर्ती जिनप्रतिमा थी वहां आया और पूर्ववत् धूप जलाने तक सब कार्य किये। इसके पश्चात् दक्षिणदिशावर्ती चैत्यवृक्ष के पास आया। वहां आकर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य किये। इसके बाद जहां माहेन्द्रध्वज था, दक्षिण दिशा की नंदा पुष्करिणी थी, वहां आया । आकर मोरपीछी को हाथ में लिया और फिर तोरणों, त्रिसोपानों, काष्ठपुतलियों और सर्परूपकों को मोरपीछी से प्रमार्जित किया—-पोंछा, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी पुष्पमालाओं से विभूषित किया और धूपक्षेप किया। तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके उत्तरदिशा की नंदा पुष्करिणी पर आया और वहां पर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि धूपक्षेप पर्यन्त कार्य किये। इसके बाद उत्तरदिशावर्ती चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तम्भ के पास आया एवं पूर्ववत् प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप करने तक के कार्य किये। इसके पश्चात् जहां पश्चिमदिशावर्ती मणिपीठिका थी, पश्चिम दिशा में स्थापित प्रतिमा थी, वहां आकर भी पूर्ववत् धूपक्षेपपर्यन्त करने योग्य कार्य किये। तत्पश्चात् वह उत्तर दिशा के प्रेक्षागृह मण्डप आया और धूपक्षेपपर्यन्त दक्षिण दिशा के प्रेक्षागृहमण्डप जैसी समस्त वक्तव्यता यहां जानना चाहिए तथा वही सब पूर्वदिशावर्ती द्वार के लिए और दक्षिण दिशा की स्तम्भपंक्ति के लिए भी पूर्ववत् वही सब कार्य किये अर्थात् स्तम्भों, काष्ठपुतलियों और व्यालरूपों आदि के प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप तक सब कार्य किये।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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