SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्ययन] [३५ काल करके उत्कृष्ट तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। १६-तए णं विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा नाम भारिया जायनिंदुया यावि होत्था। जाया जाया दारगा विणिहायमावजंति। तए णं से गोत्तासे कूडग्गाहे दोच्चाए पुढवीए अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव वाणियगामे नयरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने।तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। १६—विजयमित्र की सुभद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका (जन्म लेते ही मरने वाले बच्चों को जन्म देने वाली)थी । अतएव जन्म लेते ही उसके बालक विनाश को प्राप्त हो जाते (मर जाते) थे। तत्पश्चात् वह गोत्रास कूटग्राह का जीव भी दूसरे नरक से निकलकर सीधा इसी वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ—गर्भ में आया। तदनन्तर किसी अन्य समय में नव मास परिपूर्ण होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया। १७ तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तं दारगं जायमेत्तयं चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेइ, उज्झावित्ता दोच्चंपि गिण्हावेइ गिण्हावित्ता अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेइ। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियं च चन्दसूरपासणियं च जागरियं च महया इड्डीसक्कारसमुदएणं करेन्ति। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते, संपत्ते बारसमे दिवसे इमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेजं करेन्ति–'जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव एगंते उक्कुरुडियाए उज्झिए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए उज्झिए नामेणं । तए णं से उज्झिए दारए पंचधाईपरिग्गहिए,तं जहा खीरधाईए मज्जणधाईए मण्डणधाईए कीलावणधाईए अंकधाईए, जहा दढपइन्ने, जाव निव्वाधाए गिरिकन्दरमल्लीणे विव चम्पकपायवे सुहंसुहेणं परिवड्डइ। १७ तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही उस बालक को जन्मते ही एकान्त में कूड़े-कर्कट के ढेर पर डलवा देती है और पुनः उठवा लेती है। तत्पश्चात् क्रमशः संरक्षण व संगोपन करती हुई उसका परिवर्द्धन करने लगती है। उसके बाद उस बालक के माता-पिता स्थितिपतित-कुलमर्यादा के अनुसार पुत्रजन्मोचित बधाई बांटने आदि की क्रिया करते हैं। चन्द्र-सूर्य-दर्शन-उत्सव व जागरण महोत्सव भी महान् ऋद्धि एवं सत्कार के साथ करते हैं। तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ग्यारहवें दिन के व्यतीत हो जाने पर तथा बारहवाँ दिन आ जाने पर इस प्रकार का गौण-गुण से सम्बन्धित व गुणनिष्पन्न-गुणानुरूप नामकरण करते हैं—क्योंकि हमारा यह बालक एकान्त में उकरड़े-कचरा फेंकने की जगह पर फेंक दिया था, अतः हमारा यह बालक 'उज्झितक' नाम से प्रसिद्ध हो। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा। उन धायमाताओं के नाम ये हैं—क्षीरधात्री-दूध पिलानेवाली, स्नानधात्री स्नान कराने वाली, मण्डनधात्री वस्त्राभूषण से अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री-क्रीडा कराने वाली और अङ्कधात्री-गोद में उठाकर खिलने वाली। इन धायमाताओं के द्वारा दृढप्रतिज्ञ की तरह निर्वात्त–वायु से रहित एवं निर्व्याघात-आघात से रहित, पर्वतीय कन्दरा में अवस्तित चम्पक वृक्ष की तरह सुखपूर्वक
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy