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________________ १८] [विपाकसूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध मंतेसु य गुज्झेसु च निच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणइ न 'सुणेमि', असुणमाणे भणइ 'सुणेमि' एवं पस्समाणे, भासमाणे, गिण्हमाणे जाणेमाणे । तए णं से इक्काई रट्ठकूडे एयकम्मे पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समज्जिणमाणे विहरइ । २१ –— तदनन्तर वह एकादि नाम का प्रतिनिधि ( प्रान्ताधिपति) विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों की करों - महसूलों से, करों की प्रचुरता से किसानों को दिये धान्यादि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, रिश्वत-घूसखोरी से, दमन से, अधिक ब्याज से, हत्यादि के अपराध लगा देने से, धन-ग्रहण करने के निमित्त किसी को स्थान आदि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से, ग्रामादि को जलाने से, पथिकों को मार पीट करने से, व्यथित पीड़ित करता हुआ, धर्म से विमुख करता हुआ, कशादि से ताड़ित और सधनों को निर्धन करता हुआ प्रजा पर अधिकार जमा रहा था । तदनन्तर वह राजप्रतिनिधि एकादि विजयवर्द्धमान खेट के राजा-मांडलिक, ईश्वर-युवराज तलवरराजा के प्रिय कृपापात्र अथवा राजा की ओर से जिन्हें उच्च सन्मान, पदवी, आसन-स्थान- विशेष प्राप्त हुआ हो ऐसे नागरिक लोग, माडंबिक (मंडब - जिसके निकट दो-दो योजन तक कोई ग्राम नै हो एस प्रदेश को मंडब कहते हैं, उसके अधिपति) कौटुम्बिक बड़े कुटुम्बों के स्वामी, श्रेष्ठी, सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्त मन्त्रणाओं में, निश्चयों और विवादास्पद निर्णयों अथवा व्यावहारिक बातों में सुनता हुआ भी कहता था कि मैंने नहीं सुना और नहीं सुनता हुआ कहता था कि मैंने सुना है। इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जनता हुआ भी कहता था कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। इसी प्रकार के वंचना - प्रधान कर्म करने वाला मायाचारी को ही प्रधान कर्त्तव्य मानने वाला, प्रजा को पीड़ित करने रूप विज्ञान वाला और मनमानी करने को ही सदाचरण मानने वाला, वह एकादि प्रान्ताधिपति दुःख के कारणीभूत परम कलुषित पापकर्मों को उपार्जित करता हुआ जीवन आपन कर रहा था। इक्काई को भयंकर रोग २२ –तए णं तस्स रट्ठकूडस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस वेगायंका पाउब्भूया । तं जहा— सासे कासे जरे दाहे कुच्छिसूले भगंदरे । अरिसे अजीरए दिट्ठी, मुद्धसूले अकारए ॥ अच्छिवेयणा कण्ण-वेयणा कंडू उयरे कोढे ॥ तसे इक्काई रट्ठकूडे सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी— 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-इह खलु देवाणुप्पिया! इक्काई रट्ठकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउब्भूया, तं जहा - सासे कासे जरे जाव कोढे । तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणयपुत्तो वा तेगिच्छी वा तेगिच्छिपुत्तो वा इक्काई रट्ठकूडस्स तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंक
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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