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________________ [ ७ प्रथम अध्ययन ] धम्मं सोच्चा निसम्म जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगाय । २—उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य जातिसम्पन्न (जिसकी माता में मातृजनोचित प्रशस्त गुण विद्यमान हों अथवा जिसका मातृपक्ष निर्मल हो) कुलसम्पन्न — उत्तम पितृपक्ष सहित, बलसम्पन्न — उत्तम प्रकार के संहनन के बल से युक्त, रूपसम्पन्न — देवों की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप वाले, विनयवाले, चार ज्ञान सहित, क्षायिकसमकित से सम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लाघवसम्पन्न - द्रव्य से अल्प उपधिवाले और भाव से ऋद्धि, रस, व साता इन तीन प्रकार के गौरव (गर्व) से रहित, ओजस्वी - मनस्तेजसम्पन्न - वर्धमानपरिणाम वाले, तेजस्वी- शरीर की कान्ति वाले, वर्चस्वी - सौभाग्यादि गुणयुक्त वचन वाले पांच इंद्रियों और निद्रा के विजेता, बावीस परिषहों को जीतने वाले, जीने की आशा तथा मृत्यु के भय से रहित, तप:प्रधान—उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान —— उत्कृष्ट संयम गुणवाले, करणप्रधान-पिण्डशुद्धि आदि करणसत्तरीप्रधान, चरणप्रधान महाव्रतादिक चरणसत्तरीप्रधान, निग्रहप्रधान—– अनाचार में नहीं प्रवर्तित होने वाले, निश्चय - प्रधान - तत्त्व का निश्चय करने में उत्तम, आर्जवप्रधान—माया का निग्रह करने में वरिष्ठ, मार्दवप्रधान—मान का निग्रह करने में श्रेष्ठ, लाघवप्रधान—क्रिया को करने की कुशलता वाले, क्षान्तिप्रधान —— क्रोध को नियन्त्रण में रखने में कुशल, गुतिप्रधान —– मनोगुप्ति, वचनगुप्ति व कायगुप्ति का सरलतापूर्वक पालन करने में आदर्श, मुक्तिप्रधान —— निर्लोभीपने में श्रेष्ठतम, विद्याप्रधान —— देवताधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में परम निष्णात, मन्त्रप्रधान———हरिणेगमेषी आदि देव अधिष्ठित विद्याओं से भरपूर अथवा जो साधन - सहित हो— साधने से सिद्धि होती हो वह विद्या और साधनरहित मात्र पाठ करने से जो सिद्ध हो जाते हों वे मन्त्र, इन दोनों में कुशल, ब्रह्मप्रधान—— ब्रह्मचर्य की साधना अथवा सर्वकुशल अनुष्ठानों में कुशल, , वेदप्रधान लौकिकलौकिकोत्तर आगमों सम्बन्धी कुशलता से सम्पन्न, नयप्रधान— नैगमादि सात नयों के सूक्ष्मता से ज्ञाता, नियमप्रधान—अनेक प्रकार के अभिग्रहों को धारण करने में वरिष्ठ, सत्यप्रधान ——– सत्यवाणी बोलने में कुशल, दर्शनप्रधान चक्षुदर्शनादि से अथवा सम्यक्त्व गुण से श्रेष्ठ, चारित्रप्रधान —— प्रतिलेखनादि सत्क्रियाओं को करने में जागृत, ओराल—उदार, भयानक उग्र तपश्चर्या करने के कारण समीपवर्ती अल्पसत्त्व वाले मनुष्यों की दृष्टि में भयानक, घोरपरिषह — इन्द्रियों व कषाय नामक शत्रुओं को वशवर्ती करने में निर्दय, घोरव्रत—दूसरों के लिए जिन व्रतों का अनुष्ठान दुष्कर प्रतीत हो, ऐसे विशुद्ध महाव्रतों को पलाने वाले, घोर तपस्वी—–—–—उग्र तपस्या करने वाले, घोर ब्रह्मचर्यवासी—उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य के धारक, उज्झितशरीर —— शरीर के सत्कार - शृङ्गार से रहित, संक्षिप्त - विपुल - तेजोलेश्य अनेक योजनप्रमाण रही हुई वस्तुओं को जला सकने की क्षमता वाली विस्तीर्ण तेजोलेश्या को जिन्होंने अपने शरीर में ही समाविष्ट कर लिया है, ऐसी शक्ति से सम्पन्न, चौदह पूर्वों के ज्ञाता, केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान—मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यवज्ञान के धारक, पांच सौ अनगारों (साधुओं) से घिरे हुए सुधर्मा अनगार-मुनि क्रमशः विहार करते हुए अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी होने से विवक्षित ग्राम से अनन्तर के ग्राम में चलते हुए, साधुवृत्ति के अनुसार सुखपूर्वक विहरण करते हुए चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य - उद्यान में साधुवृत्ति के अनुरूप [अवग्रह (आश्रय) उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए ] विचरने लगे ! धर्मकथा सुनने के लिए जनता ( परिषद्) नगर से निकलकर वहाँ आयी । धर्मकथा श्रवण कर और हृदय
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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