SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकसत्र-प्रथम श्रतस्कन्ध सार : संक्षेप विपाकसूत्र अपने अभिधान के अनुसार अशुभ एवं शुभ कर्मों का विपाक—फल प्रदर्शित करने वाला ग्यारहवां अंग-शास्त्र है। समस्त कर्मपकृतियाँ मुख्यतः दो भागों में विभक्त की जाती हैं : शुभ और अशुभ। इनमें से अशुभ प्रकृतियाँ पाप-दु:ख रूप और शुभ प्रकृतियाँ पुण्य-सातारूप सुख प्रदान करती हैं। इन दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का फल-विपाक दिखलाने के लिए प्रस्तुत शास्त्र को दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया गया है—दु:खविपाक और सुखविपाक। दु:खविपाक में पापकर्मों का और सुखविपाक में पुण्य कर्मों का फल प्रतिपादित किया गया है। जैन साहित्य में कर्मसिद्धान्त का अत्यन्त विस्तारपूर्वक संगोपांग वर्णन किया गया है। बहुसंख्यक स्वतन्त्र ग्रन्थों की इस मौलिक तथा दुरूह सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए रचना की गई है। यद्यपि वह सब कर्म-साहित्य जिज्ञासुओं के लिए बहुत रस-प्रद है, मगर सबके लिए सुगम-सुबोध नहीं है। इस कमी की पूर्ति के लिए 'विपाकसूत्र' सर्वोत्तम साधन है। इसमें कथाओं के माध्यम से कर्म-विपाक की प्ररूपणा अत्यन्त सुगम एवं सुबोध शैली में की गई है। इस दृष्टि से विपाकसूत्र का अपना विशिष्ट एवं मौलिक स्थान और महत्त्व है। प्रथम श्रुतस्कनध में दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन विस्तृत है और शेष अध्ययन अपेक्षाकृत संक्षिप्त हैं। प्रथम अध्ययन में विजय क्षत्रिय-नरेश के पापी पुत्र मृगापुत्र का वर्णन किया गया है। मृगापुत्र पूर्वभवोपार्जित प्रकृष्ट पापकर्म के उदय से जब रानी मृगा के गर्भ में आया तो रानी राजा को अप्रिय, अनिष्ट एवं अनगमती हो गई। जन्म हुआ तो जन्म से ही अन्धा, बहिरा, लूला-लंगड़ा और हुण्डकसंस्थानी हुआ। उसके शरीर के हाथ, पैर, कान, आँख, नाक आदि अवयवों का अभाव था, मात्र उनके निशान थे। मृगा देवी जन्मते ही उसे घूरे (उकरड़े) पर फिकवा देना चाहती थी, मगर अपने पति के समझाने-बुझाने पर गुप्त रूप से भोयरे (भूगृह) में रख कर उसका पालन-पोषण करने लगी। एकदा भगवान् महावीर के कहने पर गौतम स्वामी को मृगापुत्र का पता लगा। वे उसे देखने के लिए गए। जिस भूगृह में मृगापुत्र रहता था वह असह्य सड़ांध से व्याप्त था। मृगादेवी उसका भोजन-पानी साथ लेकर गौतम स्वामी के साथ वहाँ गई। अत्यन्त गृद्धिपूर्वक उसने वह आहार ग्रहण किया। उदर में जाते ही भस्मक व्याधि के प्रभाव से वह आहार हजम हो गया और तत्काल मवाद और रुधिर के रूप में बदल गया। उसने उस रुधिर और मवाद का वमन किया और उसे भी चाट गया। यह सब लोमहर्षक वीभत्स एवं दयनीय दशा देखकर गौतम स्वामी भ. महावीर की सेवा में लौटे। उसकी दुर्दशा का कारण पूछा। तब भगवान् ने उसके पूर्व जन्म का विवरण इस प्रकार बतलाया
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy