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________________ पर उत्तर-प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता। एक कर्म की उत्तर-प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर-प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरणकर्म, श्रुतज्ञानावरणकर्म के रूप में परिणत हो जाता है। फिर उसका फल भे श्रुतज्ञानावरण के रूप में ही होता है। किन्तु उत्तर-प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करतीं, जैसे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। आयुकर्म की उत्तर-प्रकृतियों में भी संक्रमण नहीं होता। जैसे–नारक आयुष्य तिर्यंच आयुष्य के रूप में या अन्य आयुष्य के रूप में नहीं बदल सकता। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।१३० प्रकृति-संक्रमण की तरह बंधकालीन रस में भी परिवर्तन हो सकता है। मन्दरस वाला कर्म बाद में तीव्ररस वाले कर्म के रूप में बदलसकता है और तीव्ररस, मन्दरस के रूप में हो सकता है। अतः जीव एवंभूत तथा अन-एवंभूत वेदना वेदते हैं।१३१ इस विषय में स्थानाङ्ग की चतुर्भंगी का उल्लेख पहले किया जा चुका है।१३२ जिज्ञासा हो सकती है कि इसका मूल कारण क्या है? जैन कर्मसाहित्य समाधान करता है कि कर्म की विभिन्न अवसीएं हैं। मुख्य रूप से उन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त कर सकते हैं।१३३ (१) बन्ध, (२) सत्ता, (३) उद्वर्तनउत्कर्ष, (४) अपवर्तन-अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८) उपशमन, (९) निधत्ति, (१०) निकाचित और (११) अबाधाकाल। (१) बंध आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध होना, क्षीर-नीरवत् एकमेक हो जाना बंध है ।१३३ बंध के चार प्रकारों का वर्णन हम कर चुके हैं। (२) सत्ताआबद्ध-कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से पृथक् नहीं हो जाते तब तक वे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं। इसे जैन दार्शनिकों ने सत्ता कहा है। (३) उद्वर्तन-उत्कर्ष आत्मा के साथ आबद्ध कर्म का स्थिति और अनुभागबंध तत्कालीन परिणामों में प्रवहमान कषाय की तीव्र एवं मन्द धारा के अनुरूप होता है। उसके पश्चात् की स्थिति-विशेष अथवा भाव-विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तन-उत्कर्ष है। (४) अपवर्तन-अपकर्ष-पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में न्यून कर देना अपवर्तन अपकर्ष है। इस प्रकार उद्वर्तन-उत्कर्ष से विपरीत अपवर्तन-अपकर्ष है। सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढ़ाने का आधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वत्रमान अध्यवसायों पर विशेष आधृत है। (५) संक्रमण एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएं हैं जिनका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। संक्रमण के चार प्रकार हैं-(१) प्रकृति-संक्रमण, १३०. (क) तत्त्वार्थसूत्र ८।२२, भाष्य (ख) विशेषावश्यक भाष्य गा. १९३८ १३१. भगवती ५। ५ १३२. (क) स्थानाङ्ग ४। ४। ३१२ (ख) तुलना कीजिए अंगुत्तरनिकाय ४। २३२-२३३ १३३. (क) द्रव्यसंग्रह टीका गा. ३३ [४३]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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