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________________ कर्मफल की तीव्रता-मन्दता कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का मूल आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता और मन्दता है। कषायों की तीव्रता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उतना ही अशुभ कर्म प्रबल होगा ओर कषायों की मन्दता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उसके शुभ कर्म उतने ही प्रबल होंगे। कर्मों के प्रदेशः विभाजन प्राणी मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं द्वारा जिन कर्मप्रदेशों का संग्रह करता है वे प्रदेश नाना रूपों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं। आठ कर्मों में आयुकर्म को सबसे कम हिस्सा प्राप्त होता है। नाम और गोत्र दोनों का हिस्सा बराबर होता है। उसमें कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों को प्राप्त होता है। इन तीनों का हिस्सा समान रहता है। उससे अधिक भाग मोहनीय कर्म को मिलता है। सबसे अधिक भाग वेदनीयकर्म को मिलता है। इन प्रदेशों क पुनः उत्तर-प्रकृतियां में विभाजन होता है। प्रत्येक प्रकार के बंधे हुए कर्म क प्रदेशों की न्यूनता व अधिकता का यही मूल आधार है। कर्मबन्ध ___ लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ कर्मवर्गणा के पुद्गल न हों। प्राणी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के उत्ताप से उत्तप्त होता है अत: वह कर्मयोग्य-पुद्गलों को सर्व दिशाओं से ग्रहण करता है। आगमों में स्पष्ट निर्देश है कि एकेन्द्रिय जीव व्याघात न हाने पर छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं, व्याघात होने पर कभी तीन, चार और कभी पांच दिशाओं से ग्रहण करते हैं किन्तु शेष जीव नियम से सर्व-दिशाओं से ग्रहण करते हैं ।२२३ किन्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में यह मर्यादा है कि जिस क्षेत्र में वह स्थित है उसी क्षेत्र में स्थित कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है, अन्यत्र स्थित पुद्गलों को नहीं१२४ । यह भी विस्मरण नहीं होना चहिए कि जितनी योगों की चंचलता में तरतमता होगी उस के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्मपुद्गलों को ग्रहण करेगा। योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुओं की संख्या भी कम होगी। आगमिक भाषा में इसे ही प्रदेश बंध कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उन प्रदेशों में एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश-बन्ध है। अर्थात् जीव के प्रदेशों और कर्म-पुद्गलों के प्रदेशों का परस्पर बद्ध हो जाना प्रदेश-बन्ध है ।२२५ गणधर गौतम ने महावीर से पूछा-भगवन्! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य—एक दूसरे से बद्ध, एक दूसरे स्पृष्ट, एक-दूसरे में अवगाढ, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं? उत्तर में महावीर ने कहा—हे गौतम! हाँ रहते हैं। हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं? हे गौतम! जैसे एक ह्रद हो, जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब, जल से ऊपर १२३. (क) उत्तराध्ययन ३२१८, (ख) भगवती १७१४ १२४. विशेषावश्यक भाष्य गा. १९४१, पृ. ११७ १२५. (क) भगवती १।४। ४० वृत्ति, (ख) नवतत्त्व प्रकरण गा. ७१ की वृत्ति (ग) सप्ततत्त्वप्रकरण अ. ४, देवानन्दसूरिकृत [४१]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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