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________________ उत्तर है—जैन-कर्म-साहित्य में कर्म के मुख्य आठ प्रकार बताये हैं। उसमें एक भी प्रकार ऐसा नहीं है, जिसका सम्बन्ध आत्मा और शरीर से पृथक् किसी अन्य पदार्थ से हो। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म आत्मा के मूलगुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात करते हैं और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म शरीर की विभिन्न अवस्थाओं का निर्माण करते हैं। इस तरह आठों कर्मों का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा और शरीर के साथ है, अन्य पदार्थों और घटनाओं के साथ नहीं है। परम्परा से आत्मा, शरीर-आदि के अतिरिक्त पदार्थों और घटनाओं से भी कर्मों का सम्बन्ध हो सकता है, यदि इस प्रकार सिद्ध हो सके तो।। कर्मों का सीधा सम्बन्ध आत्मा और शरीर से है तब प्रश्न उद्बुद्ध होता है कि धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति को पुण्यजन्य किस कारण से माना जाता है? उत्तर में निवेदन है कि धन-परिजन आदि से सुख आदि की अनुभूति हो तो शुभ कर्मोदय की निमित्तत्ता के कारण बाह्य पदार्थों को भी उपचार से पुण्यजन्य मान सकते हैं। वस्तुतः पुण्य का कार्य सुख आदि की अनुभूति है, धन आदि की उपलब्धि नहीं। धन आदि के अभाव में भी सुख आदि का अनुभव होता है तो उसे पुण्य या शुभ कर्मों का फल समझना चाहिए। यह सत्य है कि बाह्य पदार्थों के निमित्त बिना भी सुख आदि की अनुभूति हो सकती है। इसी तरह दु:ख आदि भी हो सकता है। सुख-दु:ख आदि जितनी भी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुभूति होती है उसका मूल कारण बाह्य नहीं आन्तरिक है। कर्म का सम्बन्ध आन्तरिक कारण से है, बाह्य पदार्थों से नहीं। बाह्य पदार्थों की उत्पत्ति, विनाश और प्राप्ति अपने-अपने कारणों से होती है। हमारे कर्म हमारे तक ही सीमित रहते हैं, सर्वव्यापक नहीं हैं। वे हमारे शरीर और आत्मा से भिन्न अति दूर पदार्थों को किस प्रकार उत्पन्न कर सकते हैं, आकर्षित कर सकते हैं, हम तक पहुंचा सकते हैं, न्यून और अधिक कर सकते हैं, विनष्ट कर सकते हैं, सुरक्षित कर सकते हैं? ये सभी कार्य अन्य कारणों से होते हैं। सुख-दु:ख आदि की अनुभूति में निमित्त, सहायक या उततेजक होने के कारण उपचार व परम्परा से बाह्य वस्तुओं को पुण्य-पाप का परिणाम मान लेते हैं। जीव की विविध अवस्थायें कर्मजन्य हैं। शरीर, इन्द्रियां, श्वासोच्छ्वास मन-वचन आदि जीव की विविध अवस्थायें कर्म के कारण हैं। किन्तु पत्नी या पति की प्राप्ति, पुत्र-पुत्री की प्राप्ति, संयोग-वियोग, हानि-लाभ, सुकाल और दुष्काल, प्रकृति-प्रकोप, राज-प्रकोप आदि का कारण उनका अपना होता है। यह ठीक है कि कुछ कार्यों व घटनाओं में हमारा यत्किंचित् निमित्त हो सकता है किन्तु उसका मूल स्रोत उन्हीं के अन्दर है, हमारे में नहीं। हम प्रिय जन, स्वजन आदि के मिलने को पुण्य कर्म मानते हैं और उनके वियोग को पापफल कहते हैं परन्तु यह मान्यता जैनदर्शन की नहीं है। पिता के पुण्य के उदय से पुत्र पैदा नहीं होता, और पिता के पाप के उदय से पुत्र की मृत्यु नहीं होती। पुत्र के पैदा होने और मरने में उसका अपने कर्मों का उदय है किन्तु पिता का पुण्योदय और पापोदय साक्षात् कारण नहीं है। हाँ, यह सत्य है कि पुत्र पैदा होने के पश्चात् वह जीवित रहता है तो मोहनीय कर्म के कारण पिता को प्रसन्नता हो सकती है और उसके मरने पर दु:ख हो सकता है। इस प्रसन्नता और दुःख का कारण पिता का पुण्योदय और पापोदय है और उसका निमित्त पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु है। इस तरह पिता के पुण्योदय और पापोदय से पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु नहीं होती किन्तु पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु पिता के पुण्योदय और पापोदय का निमित्त हो सकती है। इसी तरह अन्यान्य घटनाओं के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। व्यक्ति का कर्मोदय, कर्मक्षय, कर्मोपशम आदि की अपनी एक सीमा है और वह सीमा है उसका शरीर, मन, वचन आदि। उस सीमा को लांघ कर कर्मोदय नहीं होता। सारांश यह है कि अपने से पृथक् सम्पूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश उनके अपने कारणों से होते हैं, हमारे कर्म के उदय के कारण से नहीं। [३१]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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