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________________ में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और जो संयोग या विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे।४२ सांख्यदर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग मिलता है।३ गीता में कर्मशीलता को कर्म कहा है।४ न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पांच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत हुआ है। स्मार्त-विद्वान् चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं। पौराणिक लोग व्रतनियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्मरूप कहते हैं। बौद्धदर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहते हैं, जो वासना रूप है। जैन-परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है-भावकर्म और द्रव्यकर्म। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भावकर्म कहलाता है। कार्मण जाति का पुद्गल-जड़तत्त्व विशेष, जो कषाय के कारण आत्मा के साथ मिल जाता है द्रव्यकर्म कहलाता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है-आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उस क्रिया के निमित्त से परिणमन विशेषप्राप्त पुद्गल भी कर्म है।५ कर्म जो पुद्गल का ही एक विशेष रूप है, आत्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है। जब तक आत्मा के साथ इस विजातीय तत्त्व-कर्म का संयोग है, तभी तक संसार है और उस संयोग के नाश होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है। विभिन्न परम्पराओं में कर्म जैन-परम्परा में जिस अर्थ में "कर्म" शब्द व्यवहृत हुआ है, उस या उससे मिलते-जुलते अर्थ में भारत के विभिन्न दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदान्तदर्शन में माया अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होत है सांख्यदर्शन में 'आशय' शब्द विशेष रूप से मिलता है। न्याय-वैशेषिकदर्शन में अदृष्ट, संस्कार और धर्माधर्म शब्द विशेष रूप में प्रचलित हैं। दैव, भाग्य, पुण्य, पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है। भारतीय दर्शनों में एक चार्वाकदर्शन ही ऐसा दर्शन है, जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है। क्योंकि वह आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता है। इसलिए कर्म और उसके द्वारा होने वाले पुनर्भव, परलोक आदि को भी वह नहीं मानता - न्यायदर्शन के अभिमतानुसार राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा संप्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं।७ वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुण माने गये हैं उनमें एक अदृष्ट भी है। यह गुण संस्कार से पृथक् है और ४२. ४३. ४५. वैशेषिकदर्शनभाष्य -१। १७ प्र. ३५ सांख्यतत्त्वकौमुदी ६७ योगः कर्मसु कौशलम् प्रवचनसार टीका २। २५ (क) जैनधर्म और दर्शन पृ. ४४३ (ख) कर्मविपाक के हिन्दी अनुवाद की प्रस्तावना, पं. सुखलालजी, पृ. २३ न्यायभाष्य १।१।२ आदि ४६. ४७. [२२]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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