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________________ ११८] [विपाकसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इसी तरह पांच सौ का प्रीतिदान-दहेज उसे दिया गया। तदनन्तर सुबाहुकुमार ऊपर सुन्दर प्रासादों में स्थित, जिसमें मृदंग बजाये जा रहे हैं, ऐसे नाट्यादि से उदगीयमान होता हुआ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। सुबाहु का धर्म-श्रवण ५ तेणं कालेणं तेणं समएणं,समणे भगवं महावीरे समोसढे।परिसा निग्गया।अदीणसत्तू जहा कूणिओ निग्गओ सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं निग्गए, जाव धम्मो कहिओ। राया परिसा गया। ५—उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर में पधारे । परिषद् (जनता) धर्मदेशना सुनने के लिए नगर से निकली, जैसे महाराजा कूणिक निकला था, अदीनशत्रु राजा भी उसी तरह भगवदर्शन तथा देशनाश्रवण करने के लिए निकला। जमालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ रथ से प्रस्थान किया। यावत् भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् और राजा धर्मदेशना सुनकर वापस लौट गये। गृहस्थधर्म का स्वीकार ६-तए णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे उट्ठाए उद्वेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, वंदित्ता नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी—'सद्दहामिणं भंते! निग्गथं पावयणं। जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव प्पभिईओ मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो अहं तहा संचाएमि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए अह णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जामि। "अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।" तएणं से सुबाहुकमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइए यंदुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जइ।पडिवज्जित्ता तमेवरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता जामेव दिसंपाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। ६–तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट धर्मकथा श्रवण तथा मनन करके अत्यन्त 'प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा—'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् जिस तरह आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थिति होकर, मुंडित होकर तथा गृहस्थावस्था से निकलकर अनगारधर्म में दीक्षित हुए हैं, अर्थात् राजा, ईश्वर आदि ने पंच महाव्रतों को स्वीकार किया है, वैसे मैं मुंडित होकर घर त्यागकर अनगार अवस्था को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। मैं पांच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को अंगीकार करना चाहता हूँ।' १. देखें भगवतीसूत्र, श. ९
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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