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नवम अध्ययन ]
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गाथापति की पुत्री और कृष्ण श्री की आत्मजा है, जो रूप, यौवन तथा लावण्य - कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है । '
१९ – ए णं से वेसमणे राया आसवाहिणियाओ पडिनियत्ते समाणे अब्भितरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी— 'गच्छह णं तुब्भे, देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीए भारियाए अत्तयं देवदत्तं दारियं पुस्सनंदिस्स जुवरन्नो भारियत्ताए वरेह, जइ वि सा सयंरज्जसुक्का।' १९ – तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका (अश्वक्रीडा) से वापिस आकर अपने आभ्यन्तर स्थानी- अन्तरङ्ग पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है
देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्ण श्री भार्या की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्या रूप में मांग करो। यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है ।
२०–तए णं ते अब्भितरठाणिज्जा पुरिसा वेसमणेणं रन्ना एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता ण्हाया जाव' सुद्धप्पावेसाइं वत्थाइं पवरपरिहिया जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था । तए णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पाखित्ता हट्ठतुट्ठे, आसणाओ अब्भुट्ठेइ । अब्भुट्ठित्ता सत्तट्ठपयाइं पच्चुग्गए आसणेणं उवनिमंते, उवनिमंतित्ता ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी 'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किं आगमणप्पओयणं ?'
तणं ते रायपुरिसा दत्तं सत्थवाहं एवं वयासी— 'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धूयं कण्हसिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसनंदिस्स जुवरन्नो भारियत्ताए वरेमो । तं जड़ णं जाणासि देवाणुप्पिया ! तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, दिज्जउ णं देवदत्ता भारिया पुसनंदिस्स जुवरन्नो । भण, देवाणुप्पिया! किं दलयामो सुक्कं ?'
तणं से दत्ते अब्भितरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी—'एयं चेव देवाणुप्पिया! मम सुक्कं जंणं वेसणे राया मम दारियानिमित्तेणं अणुगिण्हइ ।
ते अभितरठाणिज्जे पुरिसे विउलेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ ।
तणं ते अब्भितरठाणिज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता वेसमणस्स रन्नो एयमट्ठे निवेदेंति ।
२०– तदनन्तर वे अभ्यंतर - स्थानीय पुरुष अन्तरङ्ग व्यक्ति राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आये । दत्त सार्थवाह भी उन्हें आता देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आसन से उठकर उनके सम्मान के लिये सात-आठ कदम उनके सामने अगवानी
द्वि. अ., सूत्र - २२
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