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________________ नवम अध्ययन] [१०१ १३–तदनन्तर सिंहसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा—'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशनादिक ले जाओ तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों-सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकार शाला में पहुँचाओ। कौटुम्बिक पुरुष भी राजा की आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री पहुँचा देते हैं। तदनन्तर सर्व-प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं ने उस विपुल अशनादिक और सुरादिक सामग्री का आस्वादन किया—यथारुचि उपभोग किया और गान्धर्व (गाने वाले व्यक्तियों) तथा नाटक-(नृत्य करने वाले) नर्तकों से उपगीयमानप्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगी। अर्थात् भोजन तथा मद्यपान करके नाच-गान में मस्त हो गई।' १४ तए णं से सीहसेणे राया अद्धरत्तकालसमयंसि बहहिं परिसेहिं सद्धिं संपरिवडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, कूडागारसालाए दुवाराई पिहेइ, पिहित्ता कूडागारसालाए सव्वओ अगणिकायं दलयइ। तए णं तासिं एगुणगाणं पञ्चण्हं देवीसयाणं एगूणगाइं पंचमाइसयाई सीहसेणेण रन्ना आलिवियाई समाणाइं रोयमाणाई कंदमाणाइं विलवमाणाइं अत्ताणाइं असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई। . १४–तत्पश्चात् सिंहसेन राजा अर्द्धरात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ, उनसे घिरा हुआ, जहाँ कूटाकारशाला थी वहाँ पर आया। आकर उसने कूटाकारशाला के सभी दरवाजे बन्द करवा दिये। बन्द करवाकर कूटाकारशाला को चारों तरफ से आग लगवा दी। तदनन्तर राजा सिंहसेन के द्वारा अदीप्त की गईं, जलाई गईं, त्राण व शरण से रहित हुई एक कम पांच सौ रानियों की एक कम पांच सौ माताएं रुदन क्रन्दन व विलाप करती हुई कालधर्म को प्राप्त हुई। . १५–तए णं से सीहसेणे राया एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता चोत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीससागरोवमट्ठिइएसु नेरइयेसु नेरइयत्ताए उववन्ने। से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव रोहीडए नयरे दत्तस्स सत्थवाहस्स कण्हसिरीए भारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए उववन्ने। १५–तत्पश्चात् इस प्रकार के कर्म करने वाला ऐसी विद्या-बुद्धि वाला, ऐसा आचरण करने वाला सिंहसेन राजा अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३४-सौ वर्ष की परम आयु भोगकर काल करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाली छट्ठी नरकभूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। वही सिंहसेन राजा का जीव स्थिति के समाप्त होने पर वहां से निकलकर इसी रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ अर्थात् कन्या के रूप में गर्भ में आया। १६–तए णं सा कण्हसिरी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारियं पयाया सुउमालपाणिपाया जाव सुरूवा। तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो निव्वत्तवारसाहियाए विउलं असणं जाव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ नामधेज्जं करेंति तं होउणंदारिया देवदत्त नामेणं, तए णं सा देवदत्ता दारिया पंचधाईपरिग्गहिया जाव परिवड्ढइ।
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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