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________________ [विपाकसूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध नियग-सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं सद्धिं पाडलिसंडाओ नयराओ पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छित्तए । तत्थ णं उंबरदत्तस्स जक्खस्स 3 ८४ ] महरिहं पुफ्फच्चणं करित्ता जन्नुपायवडियाए ओयाइत्तए – 'जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा 'दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भायं च अक्खनिहिं च अणुवड्डइस्सामि ।' त्ति कट्टु ओवाइयं ओवाइणित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थावहे तेणेव उवागच्छइ, सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं जाव' न पत्ता। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया जाव' ओवाइणित्तए । ' तणं से सागरदत्ते गंगदत्तं भारियं एवं वयासी— 'मम पि णं, देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे, कहं तुमं दारगं दारियं वा पयाइज्जसि ।' गंगदत्ताए भारियाए एयमट्ठे अणुजाणइ । ११ – उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका (जिसके बालक जन्म लेने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हों) थी । अतएव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते. थे। एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्न प्रकार है—मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार - प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहने वाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया है। वे माताएँ ही धन्य हैं तथा वे मातएँ ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं, उन्हीं का वैभव सार्थक है और उन्होंने ही मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है जिनके स्तनगत दूध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त 9 अव्यक्त तथा स्खलित- तुतलाते वचनवाले, स्तनमूल प्रदेश से कांख तक अभिसरण - शील (मचलकर सरक जाने वाले) नितान्त सरल, कमल के समान कोमल सुकुमार हाथों से पकड़कर गोद में स्थापित किये जाने वाले पवं पुनः पुनः सुमधुर कोमल-मंजुल वचनों को बोलने वाले अपनी ही कुक्षि—उदर से उत्पन्न हुए बालक या बालिकाएँ हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ । उनका जन्म भी सफल और जीवन भी सफल है। मैं अन्य हूं, पुण्यहीन हूं, मैंने पुण्योपार्जन नहीं किया है, क्योंकि मैं इन बालसुलभ चेष्टाओं वाले एक सन्तान को भी उपलब्ध न कर सकी। अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं प्रातः काल, सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछकर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार लेकर बहुत से ज्ञातिजनों, मित्रों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धी जनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषण्ड नगर से निकलकर बाहर उद्यान में, जहाँ उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है, वहाँ जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह (बहुमूल्य) पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थनापूर्ण याचना करूं 'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालिका या बालक को जन्म दूं तो मैं तुम्हारे याग — देव पूजा, दान — देय अंश, भाग—— लाभ अंश व देवभंडार में वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार उपयाचना —— ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिए उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रात:काल १ - २. देखिए प्रस्तुत सूत्र के ही ऊपर का पाठ ।
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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