SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विभूसिए तं विउलं असणं-४ सुरं च ५, आसाएमाणे पमत्ते विहरइ। ३०-इसके बाद महाबल राजा ने कौटुबिक पुरुषों को बुलाकर कहा तुम लोग विपुल अशन, पाान, खादिम, स्वादिम पुष्प, वस्त्र, गंधमाला अलंकार एवं सुरा आदि मदिराओं को तैयार कराओ और उन्हें कूटाकारशाला में चोरसेनापति अभग्नसेन की सेवा में पहुंचा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने हाथ जोड़कर यावत् अञ्जलि करके राजा की आज्ञा स्वीकार की और तदनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहाँ पहुँचा दी। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहिनकर अपने बहुत से मित्रों व ज्ञाति जनों आदि के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध मदिराओं का सम्यक् आस्वादन विस्वादन करता हुआ प्रमत्त—बेखबर होकर विहरण करने लगा। ३१–तए णं से महाबले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'गच्छह, णं तुब्भे, देवाणुप्पिया! पुरिमतालस्स नयरस्स दुवाराई पिहेह, अभग्गसेणं चोरसेणावइं जीवग्गाहं गिण्हह, गिण्हित्ता ममं उवणेह।' तए णं ते कोडुबियपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता पुरिमतालस्स नयरस्स दुवाराई पिहेंति, अभग्गसेणं चोरसेणावइं जीवग्गाहं गिण्हंति, महाबलस्स रण्णो उवणेति। तए णं से महाबले राया अभग्गसेणं चोरसेणावइं एएणं विहाणेणं वझं आणवेइ। एवं खलु गोयमा! अभग्गसेणे चोरसेणावई पुरापोराणाणं जाव विहरइ। ३१—(अभग्नसेन चोरसेनापति को सत्कारपूर्वक कूटाकारशाला में ठहराने और भोजन कराने तथा मदिरा पिलाने के पश्चात्) महाबल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा 'हे देवानुप्रियो! तुम लोग जाओ और जाकर पुरिमताल नगर के दरवाजों को बन्द कर दो और अभ्ज्ञग्नसेन चोरसेनापति को जीवित स्थिति में ही पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो!' तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की यह आज्ञा हाथ जोड़कर यावत् दश नखों वाली अञ्जलि करके शिरोधार्य की और पुरिमताल नगर के द्वारों को बन्द करके चोरसेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़ कर महाबल नरेश के समक्ष उपस्थित किया। तत्पश्चात् महाबल नरेश ने अभग्नसेन चोरसेनापति को इस विधि से (जैसा तुम देखकर आए हो) बध करने की आज्ञा प्रदान कर दी। श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं—हे गौतम! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोरसेनापति अभग्नेसन पूर्वोपार्जित पापकर्मों के नरक तुल्य विपाकोदय के रूप में धोर वेदना का अनुभव कर रहा है। अभग्नसेन का भविष्य ३२—अभग्गसेणे णं भन्ते! चोरसेणावई कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ? 'गोयमा! अभग्गसेणे चोरसेणावई सत्ततीसंवासाइं परमाउं पालइत्ता अजेव तिभागावसेसे
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy