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________________ तृतीय अध्ययन] [४७ पासित्ता एवं वयासी—'किं णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि ?' तए णं सा खंदसिरी विजयचोरसेणावई एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि।' तए णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरीए भारियाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म खंदसिरिभारियं एवं वयासी—'अहासुहं देवाणुप्पिए!' त्ति एयमढे पडिसुणेइ! १४—तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देखकर इस प्रकार पूछ।—देवानुप्रिये! तुम उदास हुई क्यों आर्तध्यान कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय चोरसेनापति के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा—'देवानुप्रिय! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं। मुझे पूर्वोक्त दोहद हुआ, उसकी पूर्ति न होने से कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य-शून्य होकर शोकाकुल एवं आर्तध्यान कर रही हूँ।' ____ तब विजय चोरसेनापति ने अपनी स्कन्दश्री भार्या का यह कथन सुन और समझ कर स्कन्दश्री भार्या को इस प्रकार कहा—हे सुभगे! तुम इस दोहद की अपनी इच्छा के अनुकूल पूर्ति कर सकती हो, इसकी चिन्ता न करो। १५—तए णं सा खंदसिरिभारिया विजएणं चोरसेणावइणा अब्भणुन्नाया समाणी हट्ठा तुट्ठा बहूहिं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण-महिलाहिं जाव अन्नाहि य बहूहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा ण्हाया जाव विभूसिया विउलं असणं-४ सुरं च-५ आसाएमाणी-४ विहरइ। जिमियभुत्तुत्तरागया पुरिसनेवत्था सन्नद्धबद्ध० जाव आहिंडमाणी दोहलं विणेइ। तए णं सा खंदसिरिभारिया संपुण्णदोहला, संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला० तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। १५तदनन्तर वह स्कन्दश्री पति के वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। हर्षातिरेक से बहुत सहचारियों व चोरमहिलाओं को साथ में लेकर स्नानादि से निवृत्त हो, अलंकारों से अलंकृत होकर विपुल अशन, पान व सुरा मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करने लगी। इसी तरह सबके साथ भोजन करने के पश्चात् उचित स्थान पर एकत्रित होकर पुरुषवेष को धारण कर तथा दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण करके यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है। तत्पश्चात् वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, सम्मानित होने, विनीत होने, तथा सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को परममुखपूर्वक धारण करती हुई रहने लगी। १६–तए णं सा चोरसेणावइणी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं से विजए चोरसेणावई तस्सदारगस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं दसरत्तं ठिइवडियं करेइ। तए णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे विउलं असणं-४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्त-नाइ० आमंतेइ, आमंतित्ता जाव तस्सेव मित्त-नाइ० पुरओ एवं वयासी—'जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए अभग्गसेणे नामेणं।'
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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