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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
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उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आये। आकर श्रेणिक राजा को जय और विजय शब्दों से वधाया। श्रेणिक राजा ने चन्दनादि से उनकी अर्चना की, गुणों की प्रशंसा करके वन्दन किया, पुष्पों द्वारा पूजा की, आदरपूर्ण दृष्टि से देख कर एवं नमस्कार करके मान किया, फल-वस्त्र आदि देकर सत्कार किया और अनेक प्रकार की भक्ति करके सम्मान किया। फिर वे स्वप्नपाठक पहले से बिछाए हुए भद्रासनों पर अलगअलग बैठे।
३४-तए णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारिणिं देविं ठवेइ, ठवेत्ता पुप्फ-फलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! धारिणी देवी अज तंसि तारिसगंसिसयणिजंसि जाव महासुमिणं पसित्ता णं पडिबुद्धा। तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव' सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ?
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने जवनिका के पीछे धारिणी देवी को बिठलाया। फिर हाथों में पुष्प और फल लेकर अत्यन्त विनय के साथ उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! आज उस प्रकार की उस (पूर्ववर्णित) शय्या पर सोई हुई धारिणी देवी यावत् महास्वप्न देखकर जागी है। तो देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न का क्या कल्याणकारी फल-विशेष होगा? स्वप्नपाठकों द्वारा फलादेश
__ ३५–तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया तं सुमिणं सम्मं ओगिण्हंति।ओगिण्हित्ताईहं अणुमविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुमिणस्सलद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रण्णो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी
तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा का यह कथन सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट, आनन्दितहृदय हुए। उन्होंने उस स्वप्न का सम्यक् प्रकार से अवग्रहण किया। अवग्रहण करके ईहा (विचारणा) में प्रवेश किया, प्रवेश करके परस्पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया। विचार-विमर्श करके स्वप्न का अपने आपसे अर्थ समझा, दूसरों का अभिप्राय जानकर विशेष अर्थ समझा, आपस में उस अर्थ की पूछताछ की, अर्थ को निश्चय किया और फिर तथ्य अर्थ का (अन्तिम रूप से) निश्चय किया। वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के सामने स्वप्नशास्त्रों का बार-बार उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले
३६-एवं खलु अम्हं सामी! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा। तत्थं णं सामी! अरहंतमायरो वा, चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतंसि वा चक्कवट्टिसिं वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चोद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झन्तितंजहा-गय-उसभ-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं।
पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च॥ १-२. प्र. अ. सूत्र २१ ३. प्र.अ. सूत्र २०