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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ]
[२१ किया। सरस और सुगंधित गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया। शुचि पुष्पों की माला पहनी। केसर आदि का लेपन किया। मणियों के और स्वर्ण के अलंकार धारण किये। अठारह लड़ों के हार, नौ लड़ों के अर्धहार, तीन लड़ों के छोटे हार तथा लम्बे लटकते हुए कटिसूत्र से शरीर की सुन्दर शोभा बढ़ाई। कंठ में कंठा पहना। उंगलियों में अंगूठियाँ धारण कीं। सुन्दर अंग पर अन्यान्य सुन्दर आभरण धारण किये। अनेक मणियों के बने कटक और त्रुटिक नामक आभूषणों से उसके हाथ स्तंभित से प्रतीत होने लगे। अतिशय रूप के कारण राजा अत्यन्त सुशोभित हो उठा। कुंडलों के कारण उसका मुखमंडल उद्दीप्त हो गया। मुकुट से मस्तक प्रकाशित होने लगा। वक्ष-स्थल हार से आच्छादित होने के कारण अतिशय प्रीति उत्पन्न करने लगा। लम्बे लटकते हुए दुपट्टे से उसने सुन्दर उत्तरासंग किया। मुद्रिकाओं से उसकी उंगलियाँ पीली दीखने लगीं। नाना भांति की मणियों, सुवर्ण और रत्नों से निर्मल, महामूल्यवान्, निपुण कलाकारों द्वारा निर्मित, चमचमाते हुए, सुरचित, भली-भाँति मिली हुई सन्धियों वाले, विशिष्ट प्रकार के मनोहर, सुन्दर आकार वाले और प्रशस्त वीर-वलय धारण किए। अधिक क्या कहा जाय? मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत और वस्त्रों से विभूषित राजा श्रेणिक कल्पवृक्ष के समान दिखाई देने लगा। कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माला वाला छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया। आजूबाजू चार चामरों से उसका शरीर बीजा जाने लगा। राजा पर दृष्टि पड़ते ही लोग 'जय-जय' का मांगलिक घोष करने लगे। अनेक गणनायक (प्रजा में बड़े), दंडनायक (कटक के अधिपति), राजा (माडंबिक राजा), ईश्वर (युवराज अथवा ऐश्वर्यशाली), तलवर (राजा द्वारा प्रदत्त स्वर्ण के पट्टे वाले), मांडलिक (कतिपय ग्रामों के अधिपति), कौटुम्बिक (कतिपय कुटुम्बों के स्वामी), मंत्री, महामंत्री, ज्योतिषी, द्वारपाल, अमात्य, चेट (पैरों के पास रहने वाले सेवक), पीठमर्द (सभा के समीप रहने वाले सेवक मित्र), नागरिक लोग, व्यापारी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपाल-इन सब से घिरा हुआ ग्रहों के समूह में देदीप्यमान तथा नक्षत्रों और ताराओं के बीच चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन राजा श्रेणिक मज्जनगृह से इस प्रकार निकला जैसे उज्वल महामेघों में से चन्द्रमा निकला हो। मज्जनगृह से निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभा) थी, वहीं आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हुआ।
३१-तए णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिमागे अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चुत्थुयाइं सिद्धत्थमंगलोवयारकयसंतिकम्माइं रयावेइ। रयावित्ता णाणामणिरयमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्यवरपट्टणुग्गयं सण्हबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामिय-उसभ-तुरय-णर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलयपउमलय-भत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवर-पेरंत-देसभागं अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता अच्छरग-मउअमसूरग-उत्थइयं धवलवत्थ-पच्चत्थुयं विसिटें अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावेइ। रयावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ। सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए विविहसत्थकुसले सुविणपाढए सद्दावेह, सद्दावेत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा अपने समीप ईशानकोण से श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों के मांगलिक उपचार से जिनमें शान्तिकर्म किया गया है, ऐसे आठ भद्रासन रखवाता है। रखवा करके नाना मणियों
और रत्नों से मंडित, अतिशय दर्शनीय, बहुमूल्य और श्रेष्ठनगर में बनी हुई, कोमल एवं सैकड़ों प्रकार की रचना वाले चित्रों का स्थानभूत, ईहामृग (भेड़िया), वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, ररु जाति के मृग,