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________________ [ज्ञाताधर्मकथा आया। तब उसने बार-बार उत्पन्न होने वाली इस विपदा से छुटकारा पाने के लिए एक-मंडल-घास-फूस, पेड़-पौधों से रहित, साफ-सफाचट मैदान तैयार किया। कुछ काल व्यतीत होने पर फिर ग्रीष्मऋतु में दावानल का प्रकोप हुआ। इस वार बचाव का स्थान तैयार था-बनाया हुआ वह मंडल। मेरुप्रभ उसी ओर भागा। जंगल के सभी प्रकार के जानवर मंडल में शशक आदि सभी एक दूसरे से सटे बैठे थे। मेरुप्रभ भी थोड़ी-सी जगह देख कर खड़ा हो गया। अचानक मेरुप्रभ के शरीर में खुजली उठी। उसने शरीर खुजलाने के लिए पैर ऊपर उठाया ही था कि अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा धक्का खाता हुआ एक शशक, पैर उठाने से खाली हुई जगह में आ घुसा। ____ अब मेरुप्रभ हाथी के सामने बड़ी विकट समस्या थी। पैर जमीन पर टेकता है तो शशक की चटनी बन जाती है। पैर उठाये रखे कब तक? दावानल जल्दी शान्त नहीं होता। फिर भारी भरकम शरीर! उसे तीन पैरों पर कैसे संभाले! एक ओर आत्मरक्षा की चिन्ता तो दसरी ओर जीवदया की प्रबल भावना! बडी असमंजस की स्थिति थी। परन्तु श्रेष्ठ आत्मा अपने हित और सुख का विघात करके भी दूसरे के हित और सुख के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। आखिर आत्मरक्षा के समक्ष भूतदया की विजय हुई। मेरुप्रभ ने स्वयं घोर कष्ट सहन करके भी शशक की अनुकम्पा के लिए अपना पैर अधर ही उठा रखा। इस प्रशस्त अनुकम्पा की बदौलत मेरुप्रभ का संसार परीत हो गया-अनन्त जन्म-मरण का चक्र अति सीमित हो गया और उसने मनुष्यायु का बन्ध किया। __मेरुप्रभ ने अढ़ाई अहो-रात्र तक अपना पैर उठाए रखा। जब दावानल जंगल को भस्मसात् करके शान्त हो गया, बुझ गया और दूसरे प्राणी आहार-पानी की खोज में इधर-उधर चले गए, शशक भी चला गया तो मेरुप्रभ ने अपना पैर पृथिवी पर टेकना चाहा। परन्तु अढ़ाई दिन तक एक-सा अधर रहने के कारण पैर अकड़ गया था। अतएव पैर जमाने के प्रयत्न में वह स्वयं ऐसा गिर गया जैसे विद्युत के प्रबल आघात से पर्वत का शिखर टूट कर गिर पड़ा हो। उस समय मेरुप्रभ की उम्र सौ वर्ष की थी। जरा से जर्जरित था। भूखा-प्यासा होने से अतिशय दुर्बल, अशक्त और पराक्रम-हीन हो गया था। वह उठ नहीं सका और तीन दिन तक दुस्सह वेदना सहन करके अन्त में प्राण त्याग करके मगधसम्राट् श्रेणिक की महारानी धारिणी के उदर में शिशु के रूप में जन्मा । शिशु जब गर्भ में था तब महारानी धारिणी को असमय में पंचरंगी मेघों से युक्त वर्षाऋतु के दृश्य को देखने का दोहद उत्पन्न हुआ। अभयकुमार के प्रयत्न से, दैवी सहायता से विक्रिया द्वारा वर्षाऋतु का सर्जन किया गया। प्रस्तुत अध्ययन में वर्षाऋतु का जो शब्दचित्र अंकित किया गया है, वह अतिशय भव्य और हृदयग्राही है। सूक्ष्म प्रकृति-निरीक्षण की गंभीरता का उससे स्पष्ट परिचय मिलता है। वर्षाऋतु का हूबहू दृश्य नेत्रों के सामने आ खड़ा होता है। उस प्रसंग की भाषा भी धाराप्रवाहमयी, आह्लादजनक और मनोरम है। पढ़तेपढ़ते ऐसा अनुभव होने लगता है जैसे किसी उत्कृष्ट काव्य का पारायण कर रहे हैं। इस प्रकार के सरस पाठ आगमों में विरले ही मिलते हैं।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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