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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक] [५०७ कंडरीक की रुग्णता ११–तए णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहि अंतेहि य पंतेहि य जहा सेलगस्स जाव दाहवक्कंतीए यावि विहरइ। तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त-प्रान्त अर्थात् रूखे-सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान यावत् दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया। वे रुग्ण होकर रहने लगे। १२-तए णं थेरा अन्नया कयाई जेणेव पोंडरीगिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए, धम्मं सुणेइ। तएणं पुंडरीए राया धम्मं सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरोरगं सव्वाबाहं सरोयं पासइ, पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-'अहं णं भंते! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसहभूसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउट्टामि, तं तुब्भे णं भंते! मम जाणसालासु समोसरह।' . तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे। तब पुंडरीक राजमहल से निकला और उसने धर्मदेशना श्रवण की। तत्पश्चात् धर्म सुनकर पुंडरीक राजा कंडरीक अनगार के पास गया। वहाँ जाकर कंडरीक मुनि की वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके उसने कंडरीक मुनि का शरीर सब प्रकार की बाधा से युक्त और रोग से आक्रान्त देखा। यह देखकर राजा स्थविर भगवन्त के पास गया। जाकर स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-भगवन ! मैं कंडरीक अनगार की यथा-प्रवृत्त (आपकी प्रवृत्ति समाचारी के अनुकूल) औषध और भेषज से चिकित्सा कराता हूँ (कराना चाहता हूँ) अतः भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिये।' १३–तए णं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स रण्णो एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणित्ता जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरंति। तए णं पुंडरीय राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव वलियसरीरे जाए। तब स्थविर भगवान् ने पुंडरीक राजा का यह विवेचन स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके यावत् यानशाला में रहने की आज्ञा लेकर विचरने लगे-वहाँ रहने लगे। तत्पश्चात् जैसे मंडुक राजा ने शैलक ऋषि की चिकित्सा करवाई, उसी प्रकार राजा पुंडरीक ने कंडरीक की करवाई। चिकित्सा हो जाने पर कंडरीक अनगार बलवान् शरीर वाले हो गये। कंडरीक मुनि की शिथिलता १४–तएणं थेरा भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति। तए णं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णंसि असणपाण-खाइम-साइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने, णो संचाएइ पोंडरीयं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुजएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए। तत्थेव ओसण्णे जाए।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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