________________
४८४]
[ज्ञाताधर्मकथा
नगर-रक्षकों ने निरन्तर पीछा करके चिलात को पराजित कर दिया। तब उसके साथी पाँच सौ चोर चोरी का माल छोड़ कर इधर-उधर भाग गए। नगर-रक्षक वह धन-सम्पत्ति लेकर वापिस लौट गए। चिलात सुंसुमा को लेकर अकेला भागा। धन्य सेठ अपने पुत्रों के साथ उसका लगातार पीछा करता चला गया। यह देखकर, बचने का अन्य कोई उपाय न रहने पर चिलात ने सुंसुमा का गला काट डाला और धड़ को वहीं छोड़, मस्तक साथ लेकर अटवी में कहीं भाग गया। मगर भूख-प्यास से पीड़ित होकर वह अटवी में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया-सिंहगुफा तक नहीं पहुँच सका।।
उधर धन्य सार्थवाह ने जब अपनी पुत्री का मस्तकविहीन निर्जीव शरीर देखा तो उसके शोक-संताप का पार न रहा। वह बहुत देर तक रोता-विलाप करता रहा।
धन्य और उसके पुत्र चिलात का पीछा करते-करते बहुत दूर पहुँच गये थे। जोश ही जोश में उन्हें पता नहीं चला कि हम नगर से कितनी दूर आ गए हैं। अब वह जोश निश्शेष हो चुका था। वे भूख-प्यास से बुरी तरह पीड़ित हो गए थे। आसपास पानी तलाश किया, मगर कहीं एक बूंद न मिला। भूख-प्यास की इस स्थिति में लौट कर राजगृह तक पहुँचना भी संभव नहीं था। बड़ी विकट अवस्था थी। सभी के प्राणों पर संकट था।
यह सब सोचकर धन्य-सार्थवाह ने कहा-'भोजन-पान के बिना राजगृह पहुँचना संभव नहीं है, अतएव मेरा हनन करके मेरे मांस और रुधिर का उपभोग करके तुम लोग सकुशल घर पहुँचो।' किन्तु ज्येष्ठ पुत्र ने पिता के इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया। उसने अपने वध की बात कही, पर अन्य भाइयों ने उसे भी मान्य नहीं किया। इसी प्रकार कोई भी किसी भाई के वध के लिए सहमत नहीं हुआ। तब धन्य ने सुंसुमा के मृत कलेवर से ही भूख-प्यास की निवृत्ति करने का प्रस्ताव किया। यही निर्णय रहा। सुंसुमा के शरीर का आहार करके अपने पुत्रों के साथ धन्य सार्थवाह सकुशल राजगृह नगर पहुँच गया। यथासमय धन्य ने प्रव्रज्या अंगीकार की। सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वह विदेहक्षेत्र से सिद्धि प्राप्त करेगा।
प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथा का यह संक्षिप्त स्वरूप है। इसका सार-निष्कर्ष स्वयं शास्त्रकार ने अन्त में दिया है। वह इस प्रकार है
धन्य-सार्थवाह और उसके पुत्रों ने सुसुमा के मांस-रुधिर का आहार शरीर के पोषण के लिए नहीं किया था, जिह्वालोलुपता के वशीभूत होकर भी नहीं किया था, किन्तु राजगृह तक पहुँचने के उद्देश्य से ही किया था। इसी प्रकार साधक मुनि को चाहिए कि वह इस अशुचि शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् मुक्तिधाम तक पहुँचने के लक्ष्य से ही आहार करे।
जैसे धन्य-सार्थवाह को अपनी पुत्री के मांस-रुधिर के सेवन में लेशमात्र भी आसक्ति या लोलुपता नहीं थी, उसी प्रकार साधक के मन में आहार के प्रति अणुमात्र भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
उच्चतम कोटि की अनासक्ति प्रदर्शित करने के लिए यह उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है-अनुरूप है। इस पर सही दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए-शास्त्रकार के आशय को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।