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________________ ४२६] [ज्ञाताधर्मकथा रायसहस्सा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं करयल जाव वद्धावेत्ता कण्णस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठइ। तत्पश्चात् द्रुपद राजा प्रभात में स्नान करके यावत् विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर सवार होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण करके, अश्वों, गजों, रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरंगिणी सेना के साथ तथा अन्य भटों एवं रथों से परिवृत होकर कांपिल्यपुर के मध्य से बाहर निकला। निकल कर जहाँ स्वयंवरमंडप था और जहाँ वासुदेव आदि बहुत-से हजारों राजा थे, वहाँ आया। आकर उन वासुदेव वगैरह का हाथ जोड़कर अभिनन्दन किया और कृष्ण वासुदेव पर श्रेष्ठ श्वेत चामर ढोरने लगा। - ११८-तए णं दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता ण्हाया जाव सुद्धप्यावेसाइं मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ। उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई। वहाँ जाकर स्नानगृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत् शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक उत्तम वस्त्र धारण किये। जिन प्रतिमाओं का पूजन किया। पूजन करके अन्त:पुर में चली गई। * इस पाठ के विषय में वाचनाभेद पाया जाता है। किन्हीं-किन्ही प्रतियों में उपलब्ध होने वाला पाठ ऊपर दिया गया है। यह पाठ शीलांकाचार्यकृत टीका में भी वाचनान्तर के रूप में ग्रहण किया गया है। किन्तु कुछ अर्वाचीन प्रतियों में जो पाठान्तर पाया जाता है, वह इस प्रकार है तएणं सा दोवई राजवरकन्ना जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहाया कायबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया मजणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जिणपडिमाण आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चइ, अच्चित्ता तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ, डहित्ता वामं जाणुं अंचेइ, दाहिणं धरणियलंसि णिवेसेइ णिवेसित्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेइ, नमइत्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, करयल जाव कट्ट एवं वयासी-'नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं' वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जिणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ। ___अर्थात् तत्पश्चात् द्रौपदी राजवरकन्या स्नानगृह में गई। वहाँ जाकर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, मसी तिलक आदि कौतुक, दूर्वादिक मंगल और अशुभ की निवृत्ति के अर्थ प्रायश्चित किया। शुद्ध और शोभा देने वाले मांगलिक वस्त्र धारण किये। फिर वह स्नानगृह से बाहर निकली। निकल कर जिनगृह-जिनचैत्य में गई और उसके भीतर प्रविष्ट हुई। वहाँ जिनप्रतिमाओं पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें प्रमाण किया। प्रणाम करके मयूरपिच्छी ग्रहण की। फिर सूर्याभ देव की भाँति जिनप्रतिमाओं की पूजा की। पूजा करके उसी प्रकार (सूर्याभ देव की तरह) यावत् धूप जलाई। धूप जलाकर बायें घुटने को ऊँचा रक्खा और दाहिने घुटने को पृथ्वीतल पर रखकर मस्तक नमाया। नमाने के बाद मस्तक थोड़ा ऊपर उठाया। फिर दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा-'अरिहन्त भगवन्तों को यावत् सिद्धपद को प्राप्त जिनेश्वरों की नमस्कार हो।' ऐसा कह कर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके जिनगृह से बाहर निकली। बाहर निकल कर जहाँ अन्तःपुर था, वहाँ आ गई।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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