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[ज्ञाताधर्मकथा जोड़कर सब ने कृष्ण वासुदेव का जय-विजय के शब्दों से अभिनन्दन किया।
९३-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगय जाव[ रह-पवरजोहकलियं चउरंगिणिं सेनं सण्णाहेह सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव ] पच्चप्पिणंति।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही पट्टाभिषेक किये हुए हस्तीरत्न (सर्वोत्तम हाथी) को तैयार करो तथा घोड़ों हाथियों [रथों और उत्तम पदातियों की चतुरंगिणी सेना सज्जित करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो।] यह आज्ञा सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने तदनुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी।
९४–तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव [विचित्तमणि-रयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुष्फोदएहिं सुद्धोदएहिं पुणो पुणो कल्लाणग-पवरमजणविहीए मज्जिए] अंजणगिरिकूडसंनिभं गयवई नरवई दुरूढे।
तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खेहिं दसहिं दसारेहिं जाव' अणंगसेणापामुक्खेहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं वारवई नयरिं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरट्ठाजणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचालजणवयस्य मझमझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव मजनगृह (स्नानागार) में गये। मोतियों के गुच्छों से मनोहर [तथा चित्रविचित्र मणियों और रत्नों के फर्शवाले मनोरम स्नानगृह में, अनेक प्रकार की मणियों और रत्नों की रचना के कारण अद्भुत स्नानपीठ (स्नान करने के पीढ़े) पर सुखपूर्वक आसीन हुए। तत्पश्चात् शुभ अथवा सुखजनक जल से, सुगंधित जल से तथा पुष्प-सौरभयुक्त जल से बार-बार उत्तम मांगलिक विधि से स्नान किया,] स्नान करके विभूषित होकर यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान (श्याम और ऊँचे) गजपति पर वे नरपति आरूढ़ हुए।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय आदि दस दसारों के साथ यावत् अनंगसेना आदि कई हजार गणिकाओं के साथ परिवृत होकर, पूरे ठाठ के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ द्वारवती नगरी के मध्य में होकर निकले। निकल कर सुराष्ट्र जनपद के मध्य में होकर देश की सीमा पर पहुंचे। वहाँ पहुँच कर पंचाल जनपद के मध्य में होकर जिस ओर कांपिल्यपुर नगर था, उसी ओर जाने के लिए उद्यत हुए। हस्तिनापुर को दूतप्रेषण
९५-तए णं से दुवए राया दोच्चं दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणारं नगरं, तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं-जुहिट्ठिलं भीससेणं अजुणं नउलं सहदेवं, दुजोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरंदोणं जयद्दहं सउणिं कीवं आसत्थामं करयल जाव
१. अ. १६ सूत्र ८६