________________
[४०७
सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] 'किं णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा झियाहि ?'
तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर दासचेटी (दासी) को बुलाया और उससे कहा-'देवानुप्रिये! तू जा और वर-वधू (वधू और वर) के लिए मुख-शोधनिका (दातौन-पानी) ले जा। तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को 'बहुत अच्छा' कह कर अंगीकार किया। उसने मुखशोधनिका ग्रहण की। ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची। वहाँ पहुँच कर सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देख कर पूछा-'देवानुप्रिये! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो?'
__ ५३–तए णं सा सुमालिया दारिया तं दासचेडिं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उढेइ, उद्वित्ता वासघरदुवारं अवंगुणेइ, जाव पडिगए।ततो अहं मुहत्तंतरस्स जाव विहाडियंपासामि, गए से सागरएत्ति कटुओहयमणसंकप्पा जाव झियायामि।
दासी का प्रश्न सुन कर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये! सागरदारक मुझे सुख से सोया जान कर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् [व्याध से छुटकारा पाये काक की तरह] वापिस चला गया-भाग गया है। तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वार उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा-'सागर चला गया। इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ।'
५४-तए णं दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमढे सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमटुं निवेएइ।
दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ (वृत्तान्त) को सुन कर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था। वहाँ आकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया।
५५-तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तसत्थवाहगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-'किं णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा, जं णं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसं पइव्वयं विप्पजहाय इहमागओ?' बहूहिं खिजणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभइ।
दासचेटी से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा। पहुँचकर उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय! क्या यह योग्य है ? प्राप्तउचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है?' यह कह कर बहुत-सी खेद युक्त क्रियाएँ करके तथा रुदन की चेष्टाएँ करके उसने उलाहना दिया।
५६-तएणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमढे सोच्चा जेणेव सागरे दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागिच्छत्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-'दुडु णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागए। तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे।'