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सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी]
[३८७ दुःखपूर्वक जन्म लेती, दुःखमय जीवनयापन करती और दुःख के साथ मरती है।
लम्बे काल तक के इस जन्म-मरण के पश्चात् उसे मनुष्यभव प्राप्त होती है। एक सेठ के घर पुत्री के रूप में जन्म होता है। 'सुकुमालिका' नाम रखा जाता है। किन्तु अब भी उसके पापफल का अन्त नहीं होता। विवाहित होने पर पति द्वारा उसका परित्याग कर दिया जाता है। उसके शरीर का स्पर्श उसे तलवार की धार जैसा तीक्ष्ण और अग्नि जैसा उष्ण लगता है। दबाव डालने पर पति कहता है-मैं मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हूँ, मगर सुकुमालिका के शरीर के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता।
सुकुमालिका का पुनर्विवाह किया जाता है एक अत्यन्त दीन भिखारी के साथ। सुकुमालिका के पिता को खाने-पीने के लिए मिट्टी के ठीकरे लिये, फटे चीथड़े शरीर पर लपेटे एक भिखारी दिखाई देता है। वह उसे अन्दर बुलवाता है। मालिश, मर्दन, उबटन, स्नान और केशशृंगार करवा कर, सुस्वादु भोजन जिमा कर बिठलाता है। सुकुमालिका से विवाह करने का प्रस्ताव करता है। भिखारी उसे स्वीकार कर लेता है। रात्रि में शयनागार में जाने पर वही स्थिति उत्पन्न होता है जो प्रथम विवाह के समय हुई थी। भिखारी भी रात में ही उसे छोड़कर भाग जाता है। सुकुमालिका का अंगस्पर्श उसे भी सहन न हो सका।।
एक अतिशय दीन भिखारी, सेठ के असीम वैभव एवं स्वर्ग जैसे सुख के प्रलोभन को भी ठुकरा कर भाग गया तो आशा की कोई किरण शेष नहीं रही। पिता ने निराश होकर कहा-'बेटी, तेरे पापकर्म का उदय है, उसे सन्तोष के साथ भोग।' पिता ने दानशालाखोल दी।सुकुमालिकादान देती अपनासमय व्यतीत करने लगी।
कुछ समय पश्चात् उसकी दानशाला में आर्यिकाओं का भिक्षा के लिए आगमन हुआ।सुकुमालिका ने वशीकरण मंत्र, तंत्र, कामण आदि की याचना की। आर्यिकाओं ने उसे अपना धर्म समझाया। कहा-ऐसी बात सुनना भी हमारे लिए अयोग्य है। हम ब्रह्मचारिणी हैं। मन्त्र-तन्त्र से हमारा क्या वास्ता?
आखिर सुकुमालिका उनके पास साध्वी-दीक्षा अंगीकार कर लेती है। मगर उसके जीवन में, अन्तरतर में जो मलीनता जमी हुई थी, वह धुली नहीं थी। वह वहाँ भी शिथिलाचारिणी हो जाती है और स्वच्छंद होकर साध्वी-समुदाय को छोड़ एकाकिनी रहने लगती है। बाहर जाकर आतापना लेती है। इसी प्रसंग में एक बार उसे पाँच पुरुषों के साथ विलास करती एक वेश्या दृष्टिगोचर होती है। वेश्या एक पुरुष की गोद में बैठी है। शेष चार में से एक पुरुष उसके मस्तक पर छत्र लिए खड़ा है, कोई चंवर ढोल रहा है तो कोई उसके पैर दबा रहा है। यह दृश्य देख कर सुकुमालिका के मन में इसी प्रकार के सुख-भोग की लालसा उत्पन्न होती है। वह संकल्प करती है-मेरी तपस्या का फल हो तो यही कि मैं भी इसी प्रकार का सुख प्राप्त करूँ।
अन्त में मर कर वह देव पर्याय तो पाती है, मगर वहाँ भी देव-गणिका के रूप में उत्पन्न होती है।
देवभव का अन्त होने पर पंचालनृपति राजा द्रुपद की कन्या के रूप में उसका जन्म हुआ। उचित वय होने पर स्वयंवर का आयोजन किया गया। स्वयंवर में वासुदेव श्रीकृष्ण, पाण्डव आदि सहस्रों राजा आदि उपस्थित हुए। द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों का वरण किया। उसके इस स्वयंवरण पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की, मानो वह एक साधारण घटना थी। इससे तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।