SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को स्पर्श करता है। श्रद्धा के महत्त्व को बताने के लिए यह रूपक बहुत ही सटीक है। इस कथा के वर्णन से यह भी पता लगता है कि उस युग में पशुओं पक्षियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता था, पशु-पक्षी गण प्रशिक्षित होकर ऐसी कला प्रदर्शित करते थे कि दर्शक मंत्र-मुग्ध हो जाता था। . चतुर्थ अध्ययन की कथा प्रारम्भ वाराणसी से होता है। वाराणसी प्रागैतिहासिक काल से ही भारत की एक प्रसिद्ध नगरी रही है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्पराओं के विकास, अभ्युदय एवं समुत्थान के ऐतिहासिक क्षणों को उसने निहारा है। आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिन्तन के साथ ही भौतिक सुख-सुविधाओं का पर्याप्त विकास वहाँ पर हुआ था। वैदिक परम्परा में वाराणसी को पावन तीर्थ' माना है। शतपथब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में वाराणसी से सम्बन्धित अनेक अनुश्रुतियाँ हैं। बौद्ध जातकों में वाराणसी के वस्त्र और चन्दन का उल्लेख है और उसे कपिलवस्तु, बुद्धगया के समान पवित्र स्थान माना है। बुद्ध का और उनकी परम्परा के श्रमणों का वाराणसी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वहाँ बिताया। व्याख्याप्रज्ञप्ति में साढ़े पच्चीस आर्य देशों एवं सोलह महाजनपदों में काशी का उल्लेख है। भारत की दस प्रमुख राजधानियों में एक राजधानी वाराणसी भी थी। युवान् चू आंग ने वाराणसी को देश और नगर दोनों माना है। उसने वाराणसी देश विस्तार ४००० ली और नगर का विस्तार लम्बाई में १८ ली, चौड़ाई में ६ ली बतलाया है। जातक के अनुसार काशी राज्य का विस्तार ३०० योजन था । वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। प्रस्तुत नगर वरुण और असी इन दो नदियों के बीच में अवस्थित था, अतः इसका नाम वाराणसी पड़ा। यह निरुक्त नाम है। भगवान् पार्श्वनाथ आदि का जन्म भी इसी नगर में हुआ था। वाराणसी के बाहर मृत-गंगातीर नामक एक द्रह (ह्रद) था जिसमें रंग-बिरंगे कमल के फूल महकते थे। विविध प्रकार की मछलियाँ और कूर्म तथा अन्य जलचर प्राणी थे। दो कूर्मों ने द्रह से बाहर निकलकर अपने अंगोपांग फैला दिये। उसी समय दो शृगाल आहार की अन्वेषणा करते हुए वहाँ पहुँचे। कूर्मों ने शृगालों की पदध्वनि सुनी, तो उन्होंने अपने शरीर को समेट लिया। शृगालों ने बहुत प्रयास किया पर वे कूर्मों का कुछ भी न कर सके। लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद एक कूर्म ने अपने अंगोपांगों को फैला दिया जिससे उसे शृगालों ने चीर दिया। जो सिकुड़ा रहा उसका बाल भी बांका न हुआ। उसी तरह जो साधक अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखता है उसको किंचित् भी क्षति नहीं होती। सूत्रकृतांग में भी बहुत ही संक्षेप में कूर्म के रूपक को साधक के जीवन के सम्बन्धित किया है। श्रीमद्भगवद्गीता' में भी स्थितप्रज्ञ' के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए कछुए का दृष्टान्त देते हुए १. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ.४६८ २. सम्पूर्णनन्द अभिनन्दन ग्रन्थ-"काशी की प्राचीन शिक्षापद्धति और पंडित" ३. विनपिटक भा. २, ३५९-६० (ख) मज्झिम. १, १७० (ग) कथावत्थु १७, ५५९, (घ) सौन्दरनन्दकाव्या || श्लो. १०-११ ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति १५, पृ. ३८७ ५. (क) स्थानांग १० (ख) निशीथ ९-१९ (ग) दीघनिकाय-महावीरपनिव्वाण सुत्त ६. युआन, चुआंग्स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भा. २, पृ. ४६-४८ ७. धजविहेट्ठजातक- जातक भाग ३, पृ. ४५४ ८. जहा कुम्मेसअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ -सूत्रकृतांग ९. यदा संहरते चायं कूर्मोगानीय सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। -श्रीमद्भगवद्गीता २-५८ ४०
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy