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तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात]
[३४९ नमोऽथु णं अरुहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामस्स। पुव्वि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए, जाव [ थूलए मुसावाए पच्चक्खाए, थूलए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए, थूलए मेहुणे पच्चक्खाए] थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए, तंइयाणिं पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, जावज्जीवं सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं पच्चक्खामि जावजीवं जं पि य इमं सरीरं इ8 कंतं जाव' मा, फुसंतु एयं पिणं चरिमेहिं ऊसासेहिं 'वोसिरामि' त्ति कटु।
घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढ़क शक्तिहीन, बलहीन, वीर्य (उद्यम) हीन और पुरुषकार-पराक्रम से हीन हो गया। अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया। वहाँ दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार मस्तक पर आवर्तन करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोला-'अरुहंत (जिन्हें संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होना है ऐसे) यावत् निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य यावत् मोक्ष प्राप्ति के उन्मुख श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो। पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था, यावत् (स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन) और स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था; तो अब मैं उन्हीं भगवान् के निकट समस्त प्राणतिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवनपर्यन्त के लिए सर्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम-चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कह कर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया।
विवेचन-तिर्यंच गति में अधिक से अधिक पाँच गुणस्थान हो सकते हैं, अतएव देशविरति तो संभव है, किन्तु सर्वविरति-संयम की सम्भावना नहीं। फिर नंद के जीव मंडूक ने सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान कैसे कर लिया? मूलपाठ में जिस प्रकार से इसका उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आगमकार को भी उसके प्रत्याख्यान में कोई अनौचित्य नहीं लगता।
___ इस विषय में प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं
'यद्यपि सव्वं पाणइवायं पक्वक्खामि इत्यनेन सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव।'
अर्थात् यद्यपि मेंढ़क ने 'सम्पूर्ण प्राणातिपात (आदि) का प्रत्याख्यान करता हूँ' ऐसा कहकर प्रत्याख्यान किया है तथापि तिर्यंचों में देशविरति हो सकती है-सर्वविरति नहीं।
इस विषय में टीकाकार ने दो गाथाएँ भी उद्धृत की हैं, जिनमें इस प्रश्न पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। गाथाएँ ये हैं
तिरियाणं चारित्तं, निवारियं अह य तो पुणो तेसिं।
सुव्वइ बहुयाणं पि हु, महव्वयारोहणं समए॥१॥ न महव्वयसभावेवि, चरित्तपरिणामसंभवो तेसिं।
न बहुगुणाणंपि जओ, केवलसंभूइपरिणामो ॥२॥ १. अ. १, सूत्र १५६