________________
३३२]
[ज्ञाताधर्मकथा
एक बार नन्द के शरीर में एक साथ सोलह रोग उत्पन्न हो गए। उसने एक भी रोग मिटा देने पर चिकित्सकों को यथेष्ट पुरस्कार देने की घोषणा करवाई। अनेकानेक चिकित्सक आए, भाँति-भाँति की चिकित्सा पद्धतियों का उन्होंने प्रयोग किया, मगर कोई भी सफल नहीं हो सका। उन चिकित्सापद्धतियों का नामोल्लेख मूल पाठ में किया गया है, जो भारतीय चिकित्सा पद्धति के इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अन्त में नन्द मणियार बावड़ी में आसक्ति के कारण आर्तध्यान से ग्रस्त होकर उसी बावड़ी में मेंढ़क की योनि में उत्पन्न हुआ। लोगों के मुख से नन्द मणियार की प्रशंसा सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब उसने अपने मिथ्यात्व के लिए पश्चात्ताप करके आत्मसाक्षी से पुनः श्रावक के व्रत अंगीकार किए।
तत्पश्चात् एक बार पुनः भगवान् महावीर का राजगृह में समवसरण हुआ। जन-रव सुनकर उसे भी भगवान् के आगमन का वृत्तान्त विदित हुआ। भक्तिभाव से प्रेरित होकर वह भगवान् की उपासना के लिए रवाना हुआ, पर रास्ते में ही राजा श्रेणिक के एक घोड़े के पांव के नीचे आकर कुचल गया। जीवन का अन्त सन्निकट देखकर उसने अन्तिम समय की विशिष्ट आराधना की और मृत्यु के पश्चात् देवपर्याय में उत्पन्न हुआ।
देवगति का आयुष्य पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यभव प्राप्त कर, चारित्र अंगीकार करके मुक्ति प्राप्त करेगा।
विस्तार से वर्णन जानने के लिए स्वयं इस अध्ययन को पढ़िए।