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दसवाँ अध्ययन : चन्द्र]
[३०७ तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन का उत्थान-पतन गुणों और अवगुणों के कारण होता है। प्रारम्भ में कोई अवगुण अत्यन्त अल्प मात्रा में उत्पन्न होता है। मनुष्य उस ओर लक्ष्य नहीं देता या उसकी उपेक्षा करता है तो वह अवगुण बढ़ता-बढ़ता अपनी चरम सीमा तक पहुंच जाता है और जीवन-ज्योति को नष्ट करके उसके भविष्य को घोर अन्धकार से परिपूर्ण बना देता है। इसके विपरीत, यदि सद्गुणों की धीरे-धीरे निरन्तर वृद्धि करने का मनुष्य प्रयास करता रहे तो अन्त में वह गुणों में पूर्णता प्राप्त कर लेता है। अतएव किसी भी अवगुण को उसके उत्पन्न होते ही-वृद्धि पाने से पूर्व ही कुचल देना चाहिए और सद्गुणों के विकास के लिए यत्नशील रहना चाहिए।
__ इस अध्ययन से एक बात और लक्षित होती है। दीक्षा अंगीकार करते ही मुनि शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा बनता है। पूर्णिमा का चन्द्र बनने के लिए उसे निरन्तर साधु-गुणों का विकास करते रहना चाहिए।