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[ज्ञाताधर्मकथा २६-जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया! तत्थ विउव्विग्गा उस्सुया भवेज्जाह, तओ तुब्भे जेणेव पासायवडिंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, उवागच्छित्ता ममं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठज्जाह। माणं तुब्भे दक्खिणिल्वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे भइकाय-महाकाए।
जहा तेयनिसग्गे–मसि-महिस-मूसाकालए नयणविसरोसपुण्णे अंजणपुंजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कड-फुड-कुडिल-जडिल-कक्खडवियड-फडाडोवकरणदच्छे लोहागार-धम्ममाण-धमधमेंसघोसे अणागलियचंड-तिव्वरोसे समुहियं तुरियं चवलं धमधमंत-दिट्ठीविसे सप्पे य परिवसइ। मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ।
देवानुप्रियो! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो इस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। यहाँ आकर मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना।
दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है। उसका विष उग्र अर्थात् दुर्जर है, प्रचंड अर्थात् शीघ्र ही फैल जाता है, घोर है अर्थात् परम्परा से हजार मनुष्यों का घातक है, उसका विष महान् है अर्थात् जम्बूद्वीप के बराबर शरीर हो तो उसमें भी फैल सकता है, अन्य सब सर्पो से उसका शरीर बड़ा है।
इस सर्प के अन्य विशेषण 'जहा तेयनिसग्गे' अर्थात् गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना चाहिये। वे इस प्रकार हैं-वह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला है, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है। उसकी आभा काजल के ढेर के समान काली है। उसकी आँखें लाल हैं। उसकी दोनों जीभें चपल एवं लपलपाती रहती हैं। वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान (काला चमकदार और पृष्ठ भाग में स्थित) है। वह सर्प उत्कट-अन्य बलवान के द्वारा भी न रोका जा सकने योग्य. स्फट-प्रयत्न-कत हो कारण प्रकट, कुटिल-वक्र, जटिल-सिंह की अयाल के सदृश, कर्कश-कठोर और विकट-विस्तार वाला, फटाटोप करने (फण फैलाने) में दक्ष है। लोहार की भट्टी में धौंका जाने वाला लोहा जैसे धम-धम शब्द करता है, उसी प्रकार वह सर्प भी ऐसा ही 'धम-धम' शब्द करता रहता है। उसके प्रचंड एवं तीव्र रोष को कोई नहीं रोक सकता। कुत्ती के भौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्-धम् शब्द करता रहता है। उसकी दृष्टि में विष है, अर्थात् वह जिसे देख ले, उसी पर उसके विष का असर हो जाता है। अतएव कहीं ऐसा न हो कि तुम वहाँ चले जाओ और तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय।
२७–ते मागंदियदारए दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदइ, वदित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए लवणसमुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेउं पयत्ता यावि होत्था।
रत्नीद्वीप की देवी ने यह बात दो बार और तीन बार उन माकंदीपुत्रों से कही। कहकर उसने वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की। विक्रिया करके उत्कृष्ट-उतावली देवगति से इक्कीस बार लवण समुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई।