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________________ २०० ] [ ज्ञाताधर्मकथा कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठेति, तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालि-अक्खए एगंते एडेड़, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था । | तत्पश्चात् उस उज्झिका ने धन्य - सार्थवाह के इस अर्थ - आदेश को 'तहत्ति - बहुत अच्छा' इस प्रकार कहकर अंगीकार किया । अंगीकार करके धन्य - सार्थवाह के हाथ से पांच शालिअक्षत (चावल के दाने) ग्रहण किये। ग्रहण करके एकान्त में गई। वहाँ जाकर उसे इस प्रकार का विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ— 'निश्चय ही पिता (श्वसुर ) के कोठार में शालि से भरे हुए बहुत से पल्य (पाला) विद्यमान हैं । सो जब पिता मुझसे यह पाँच शालिअक्षत मांगेंगे, तब मैं किसी पल्य से दूसरे शालि-अक्षत लेकर दे दूंगी।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके उन पांच चावल के दानों को एकान्त में डाल दिया और डाल कर अपने काम में लग गई । ८ - एवं भोगवइयाए वि, णवरं सा छोल्लेइ, छोल्लित्ता अणुगिलइ, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया । एवं रक्खिया वि, णवरं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था - एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाइ० चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सद्दावेत्ता एवं वयासी – 'तुमं णं पुत्ता! मम हत्थाओ जाव पडिनिज्जारज्जासि' त्ति कट्टु मम हत्थंसि पंच- सालिअक्खए दलयइ, तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालिक्ख सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी पडिज्ागरमाणी विहरइ । इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधू भोगवती को भी बुलाकर पांच दाने दिये, इत्यादि । विशेष यह है कि उसने वह दाने छीले और छील कर निगल गई । निगल कर अपने काम में लग गई। इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि उसने वह दाने लिए। लेने पर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता ( श्वसुर ) ने मित्र ज्ञाति आदि के तथा चारों बहुओं के गृहवर्ग के सामने मुझे बुलाकर यह कहा है कि-' पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पांच दाने लो, यावत् जब मैं माँगूं तो लौटा देना। यह कह कर मेरे हाथ में पांच दाने दिए हैं। तो इसमें कोई कारण होना चाहिए।' उसने इस प्रकार विचार किया। विचार करके वे चावल के पांच दाने शुद्ध वस्त्र में बांधे। बांध कर रत्नों की डिबिया में रख लिए, रख कर सिरहाने के नीचे स्थापित किए। स्थापित करके प्रातः मध्याह्न और सायंकाल - इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भल करती हुई रहने लगी। ९ - तए णं से धणे सत्थवाहे तस्सेव मित्त० जाव' चउत्थि रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ । सद्दावेत्ता जाव' 'तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं, तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवड्ढेमाणीए' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी १. सप्तम अ. ४ २. सप्तम अ. ८
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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