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________________ १९८] [ज्ञाताधर्मकथा उस धन्य-सार्थवाह के चार पुत्रों की चार भार्याएँ-सार्थवाह की पुत्रवधुएँ थीं। उनके नाम इस प्रकार हैं-उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। परिवारचिन्ता : परीक्षा का विचार ४-तए णं तस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु अहं रायगिहे णयरे बहूणं राईसर-तलवर-माडंबियकोडुंबिय-इब्भसेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं सयस्स य कुडुंबस्स बहुसु कज्जेसु य, करणिज्जेसु य, कुडुंबेसु य, मंतणेसु य, गुज्झेसु य, रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिजे, मेढी, पमाणे, आहारे, आलंबणे, चक्खू, मेढीभूए, पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्खूभूए सव्वकजवड्डावए। तं ण णजइ जं मए गयंसि वा, चुयंसि वा, मयंसि वा, भग्गंसि वा, लुग्गंसि वा, सडियंसि वा, पडियंसि वा, विदेसत्थंसि वा, विप्पवसियंसि वा, इमस्स कुडुंबस्स किं मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सइ? __ तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबन्धि-परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्त-णाइणियग-सयण-संबन्धि परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं धूवपूष्फवस्थगंध-(मल्लालंकारेण य) जाव सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइ-नियगसयण-संबन्धि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्ठयाए पंच पंच सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं वा सारक्खेइ वा, संगोवेइ वा, संवड्वेइ वा? धन्य-सार्थवाह को किसी समय मध्य रात्रि में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'इस प्रकार निश्चय ही मैं राजगृह नगर में राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि-आदि के और अपने कुटुम्ब के भी अनेक कार्यों में, करणीयों में, कुटुम्ब सम्बन्धी कार्यों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त बातों में, रहस्यमय बातों में, निश्चय करने में, व्यवहारों (व्यापार) में, पूछने योग्य, बारम्बार पूछने योग्य, मेढ़ी के समान, प्रमाणभूत, आधार, आलम्बन, चक्षु के समान पथदर्शक, मेढ़ीभूत और सब कार्यों की प्रवृत्ति कराने वाला हूँ। अर्थात् राजा आदि सभी श्रेणियों के लोग सब प्रकार के कार्यों में मुझसे सलाह लेते हैं, मैं सब का विश्वासभाजन हूँ। परन्तु न जाने मेरे कहीं दूसरी जगह चले जाने पर, किसी अनाचार के कारण अपने स्थान से च्युत हो जाने पर, भग्न हो जाने पर अर्थात् वायु आदि के कारण लूला-लंगड़ा कुबड़ा होकर असमर्थ हो जाने पर, रुग्ण हो जाने पर, किसी रोगविशेष से विशीर्ण हो जाने पर, प्रासाद आदि से गिर जाने पर या बीमारी से खाट में पड़ जाने पर, परदेश में जाकर रहने पर अथवा घर से निकल कर विदेश जाने के लिए प्रवृत्त होने पर, मेरे कुटुम्ब का पृथ्वी की तरह आधार, रस्सी के समान अवलम्बन और बुहारू की सलाइयों के समान प्रतिबन्ध करने वाला-सब में एकता रखने वाला कौन होगा? अतएव मेरे लिए यह उचित होगा कि कल यावत् सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम–यह चार प्रकार का आहार तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजनों आदि
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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