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________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [१७३ भंडिनिक्खेवं करेइ, करित्ता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवुडे परिव्वायगावसहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे, जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ। ___ तत्पश्चात् शुक परिव्राजक को इस कथा (घटना) का अर्थ अर्थात् समाचार जान कर इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ–'सुदर्शन ने शौच-धर्म का परित्याग करके विनयमूल धर्म अंगीकार किया है। अतएव सुदर्शन की दृष्टि (श्रद्धा) का वमन (त्याग) कराना और पुनः शौचमूलक धर्म का उपदेश करना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके एक हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया। आकर उसने परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे। तदनन्तर गेरू से रंगे वस्त्र धारण किये हुए वह थोड़े परिव्राजकों के साथ, उनसे घिरा हुआ परिव्राजक-मठ से निकला। निकल कर सौगंधिका नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ सुदर्शन का घर था और जहाँ सुदर्शन था वहाँ आया। ४१-तए णं सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुढेइ, नो पच्चुग्गच्छइ नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो वंदइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तएणं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणब्भुट्ठियं पासित्ता एवं वयासी-'तुमंणंसुदंसणा! अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता अब्भुढेसि जाव(पच्चुग्गच्छसि आढासि)वंदसि, इयाणिं सुदंसणा! तुमं ममं एजमाणं पासित्ता जाव (नो अब्भुटेसि, नो पच्चुग्गच्छसि, नो आढासि) णो वंदसि, तं कस्स णं तुमे सुदंसणा! इमेयारूवे विणयमूलधम्मे पडिवन्ने?' । ___तब सुदर्शन ने शुक परिव्राजक को आता देखा। देखकर वह खड़ा नहीं हुआ, सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उसे जाना नहीं, वन्दना नहीं की, किन्तु मौन रहा। तब शुक परिव्राजक ने सुदर्शन को खड़ा हुआ देखकर इस प्रकार कहा–'हे सुदर्शन! पहले तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे, सामने आते और आदर करते थे, वन्दना करते थे, परन्तु हे सुदर्शन ! अब तुम तुझे आता देखकर [न खड़े हुए, न सामने आए। न आदर किया] न वन्दना की तो हे सुदर्शन ! (शौचधर्म त्याग कर) किसके समीप तुमने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ?' ४२–तए णं से सुदंसणे सुएणं परिव्वायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता करयल (परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट) सुयं परिव्वायगं एवं वयासी"एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामंअणगारे जाव इहमागए, इह चेव नीलासोए उजाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने।' तत्पश्चात् शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर सुदर्शन आसन से उठ कर खड़ा हुआ। उसने दोनों हाथ जोड़े मस्तक पर अंजलि की और शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! अरिहंत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र नामक अनगार विचरते हुए यावत् यहाँ आये हैं और यहीं नीलाशोक नामक उद्यान में विचर रहे हैं। उनके पास से मैंने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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