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तीर्थकर जब धर्मदेशना प्रदान करते हैं, उनके वैशिष्ट्य के कारण वे भाषात्मक पुद्गल श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिवर्तित हो जाते हैं। समवायांग' में 'भाषा-अतिशय' के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं। उनके द्वारा कही हुई अर्धमागधी भाषा आर्यअनार्य, द्विपद-चतुष्पद मृग पशु पक्षी सरीसृप आदि जीवों के हित व कल्याण तथा सुख के लिए उनकी अपनीअपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है। उसी कथन का समर्थन औपपातिक' में और आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में किया है। संक्षेप में सारांश यह है कि वर्तमान में जो अंग साहित्य हैं उसके अर्थ के प्ररूपक भगवान् महावीर और सूत्र-रचयिता गणधर सुधर्मा हैं। अंग-साहित्य के बारह भेद हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) आचार (२) सूत्रकृत् (३) स्थान (४) समवाय (५) भगवती (६) ज्ञाताधर्मकथा (७) उपासकदशा (८) अन्तकृद्दशा (९) अनुत्तरौपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक और (१२) दृष्टिपाद। ज्ञातासूत्र परिचय
अंग साहित्य में ज्ञाताधर्मकथा का छठा स्थान है। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात यानी उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएँ हैं। इसलिए इस आगम का 'णायाधम्मकहाओ' नाम है। आचार्य अभयदेव ने अपनी टीका में इसी अर्थ को स्पष्ट किया है। तत्त्वार्थभाष्य में 'ज्ञातधर्मकथा' नाम आया है। भाष्यकर ने लिखा है-उदाहरणों के द्वारा जिसमें धर्म का कथन किया है । जयधवला में नाहधम्मकहा-'नाथधर्मकथा' नाम मिलता है। नाथ का अर्थ स्वामी है। नाथधर्मकथा का तात्पर्य है नाथ-तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा। संस्कृत साहित्य में प्रस्तुत आगम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' उपलब्ध होता है। आचार्य मलयगिरि व आचार्य अभयदेव ने उदाहरणप्रधान धर्मकथा को ज्ञाताधर्मकथा कहा है। उनकी दृष्टि से प्रथम अध्ययन में ज्ञात है और दूसरे अध्ययन में धर्मकथा है।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोश में ज्ञातप्रधान धर्मकथाएँ ऐसा अर्थ किया है। पं. बेचरदास जी दोशी, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि ज्ञातपुत्र महावीर की धर्मकथाओं का प्ररूपण होने से प्रस्तुत अंग को उक्त नाम से अभिहित किया गया है।
श्वेतांबर आगम साहित्य के अनुसार भगवान महावीर के वंश का नाम "ज्ञात" था। कल्पसूत्र आचारांग९२, सूत्रकृतांग३, भगवती, उत्तराध्ययन५, और दशवैकालिक में उनके नाम के रूप में 'ज्ञात' शब्द का
१. समवायांग सू. ३४ २. औपपातिक पृ. ११७-१८ ३. काव्यानुशासन, अलंकार तिलक-१-१ ४. ज्ञाता दृष्टान्ताः तानुपादाय धर्मो यत्र कथ्यते ज्ञातधर्मकथाः।-तत्त्वार्थभाष्य ५. तत्वार्थवार्तिक १२०, पृ. ७२ ६. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः अथवा ज्ञातानि-ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे धर्मकथा द्वितीयश्रुतस्कंधे
यासु ग्रन्थपद्धतिषु (ताः) ज्ञाताधर्मकथाः।-नंदी वृत्ति, पत्र २३०-२३१ ७. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद् अथवा-प्रथमश्रुतस्कंधो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि,
द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः।-समवायांग पत्र १०८ ८. भगवान् महावीर नी धर्मकथाओ, टिप्पण पृ: १८० ९. प्राकृतसाहित्य का इतिहास १०. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. १७२ ११. कल्पसूत्र ११० १२. (क) आचारांग श्रु. २, अ. १५, सू. १००३ (ख) आचारांग श्रु. १, अ.८, उ.८, सू. ४४८ १३. (क) सूत्र. उ. १, गा. २२ (ख) सूत्र. ११६२ (ग) सूत्र. १।६।२४ (घ) सूत्र. २।६।१९ १४. भगवती १५१७९ १५. उत्तरा.६१७ १६. दशवै. अ. ५, उ. २, गा. ४९ तथा ६।२५ एवं ६।२१. .
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