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पञ्चम अध्ययन : शैलक]
[१५७ प्राग्भार (कुछ-कुछ नमे हुए गिरिप्रदेश) और शिखर थे। यह पर्वत अप्सराओं के समूहों, चारण मुनियों और विद्याधरों के मिथुनों (जोड़ों) से युक्त था। उसमें दशार वंश के समुद्रविजय आदि वीर पुरुष थे, जो कि नेमिमाथ के साथ होने के कारण तीनों लोकों से भी अधिक बलवान् थे, नित्य नये उत्सव होते रहते थे। वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रसन्नता प्रदान करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था।
विवेचन-यद्यपि द्वारवती नगरी, रैवतक गिरि और अगले सूत्रों में वर्णित नन्दनवन आदि सूत्ररचना के काल में भी विद्यमान थे, तथापि भूतकाल में जिस पदार्थ की जो स्थिति-अवस्था अथवा पर्याय थी वह वर्तमान काल में नहीं रहती। यों तो समय-समय में पर्याय का परिवर्तन होता रहता है किन्तु दीर्घकाल के पश्चात् तो इतना बड़ा परिवर्तन हो जाता है कि वह पदार्थ नवीन-सा प्रतीत होने लगता है। भगवान् नेमिनाथ के समय की द्वारवती और भगवान् महावीर के और उनके भी पश्चात् की द्वारवती में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया। इसी दृष्टिकोण से सूत्रों में इन स्थानों के लिए भूतकाल की क्रिया का प्रयोग किया गया है।
४-तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं णंदणवणे नामं उजाणे होत्था सव्वोउयपुष्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे।
तस्स णं उजाणस्स बहुमज्झमागे सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्वे, वनओ।' . उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप एक नन्दनवन नामक उद्यान था। वह सब ऋतुओं संबन्धी पुष्पों और फलों में समृद्ध था, मनोहर था। (सुमेरु पर्वत के) नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था।
उस उद्यान के ठीक बीचोंबीच सुरप्रिय नामक दिव्य यक्ष-आयतन था। यहाँ यक्षायतन का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिए। श्रीकृष्ण-वर्णन
५-तत्थणं वारवईए नयरीए कण्हे नामवासुदेवेराया परिवसइ।सेणंतत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसहस्साणं पजुण्णपामोक्खाणं अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेनपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अन्नेसिंच बहुणं ईसर-तलवर जाव [माडंविय-कोडुंबिय-इब्भसेट्ठि-सेणावइ ] सत्थवाहपभिईणं वेयड्ड-गिरिसायरपेरंतस्स यदाहिणड्डभरहस्स बारवईए य नयरीए आहेवच्चंजाव[पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे ] पालेमाणं विहरइ।
उस द्वारका नगरी में महाराज कृष्ण नामक वासुदेव निवास करते थे। वह वासुदेव वहाँ समुद्रविजय आदि दश दशारों, बलदेव आदि पाँच महावीरों, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन आदि इक्कीस हजार पुरुषों-महान् पुरुषार्थ १. औप. सूत्र २